Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 256 ] [ प्रज्ञापनासूत्र एवं जहा मोहिमओ गमो (सु. 1124-44) भणिम्रो तहा सलेस्सगमओ वि गिरवसेसो माणियन्वो जाव वेमाणिया / [1145 प्र.] भगवन् ! सलेश्य (लेश्या वाले) सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छवास-निःश्वास वाले हैं ? (इसी प्रकार आगे के द्वारों के विषय में भी) वही (पूर्ववत्) पृच्छा है, (इसका क्या समाधान ?) [1145 उ.] (गौतम !) इस प्रकार जैसे सामान्य (समुच्चय नारकों का---ौधिक) गम (सू. 1124 से 1144 तक में) कहा है, उसी प्रकार सभी सलेश्य (नारकों के सप्तद्वारों के विषय का) समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / विवेचन--सलेश्य चौवीसवण्डफवर्ती जोवों की प्राहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (1145) में लेश्यावाले नारकों से लेकर वैमानिकों तक समाहारादि सात द्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई है। कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपरणा 1146. कण्हलेस्सा णं भंते ! गेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा पुच्छा ? गोयमा ! जहा प्रोहिया (सु. 1124-30) / णवरं रइया वेदणाए माइमिच्छद्दिविउववष्णगा य प्रमाइसम्मद्दिट्टिउबवण्णगा य भाणियव्वा / सेसं तहेव जहा प्रोहियाणं। 1146 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाले सभी नैरयिक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं ? / _ [1146 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1124 से 1130 तक में) सामान्य (औधिक) नारकों का (पाहारादिविषयक कथन किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले नारकों का कथन भी समझ लेना चाहिए / ) विशेषता इतनी है कि वेदना की अपेक्षा से नैरयिक मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक और अमायो-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, (ये दो प्रकार के) कहने चाहिए। शेष (कर्म, वर्ण, लेश्या, क्रिया और आयुष्य प्रादि के विषय में) समुच्चय नारकों के (विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार (यहाँ भी समझ लेना चाहिए / ) 1147. असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा-प्रोहिया (सु. 1131-43) / णवरं मणसाणं किरियाहिं विसेसो, जाव तत्थ णं जे ते सम्मट्टिी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-संजया प्रसंजया संजयासंजया य, जहा प्रोहियाणं (सु. 1142) / [1147] (कृष्णलेश्यायुक्त) असुरकुमारों से (लेकर नागकुमार आदि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य और) यावत् वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में उसी प्रकार कहना चाहिए, जैसे (सू. 1131 से 1143 तक में) समुच्चय असुरकुमारादि के विषय में कहा गया है। मनुष्यों में (समुच्चय से) क्रियाओं की अपेक्षा कुछ विशेषता है। जिस प्रकार समुच्चय मनुष्यों का क्रियाविषयक कथन सूत्र 1142 में किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्यायुक्त मनुष्यों का कथन भी यावत्-"उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org