________________ [प्रज्ञापनासूब अहिको और 3. मायाप्रत्यया / उनमें से जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएँ पाई जाती हैं / यथा-- 1. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया और 4. अप्रत्याख्यानक्रिया; किन्तु उनमें से जो मिथ्यादृष्टि हैं, अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि हैं, उनमें निश्चितरूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं / यथा१. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया, 4. अप्रत्याख्यानक्रिया और 5. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। शेष (आयुष्य का) कथन (उसी प्रकार समझ लेना चाहिए,) जैसा नारकों का (किया गया है।) विवेचन–मनुष्यों में समाहारादि सप्त द्वारों को प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्र (1142) में मनुष्य में आहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा की गई है / __महाशरीर मनुष्यों में प्राहार एवं उच्छ्वास-निःश्वास-विषयक विशेषता-सामान्यतया महाशरीर मनुष्य बहुतर पुद्गलों का आहार परिणमन तथा उच्छ्वासरूप में ग्रहण और निःश्वासरूप में त्याग करते हैं; किन्तु देवकुरु आदि यौगलिक महाशरीर मनुष्य कवलाहार के रूप में कदाचित् ही पाहार करते हैं। उनका प्राहार अष्टमभक्त से होता है, अर्थात्-वे बीच में तीन-तीन दिन छोड़ कर आहार करते हैं / वे कभी-कभी ही उच्छ्वास और निःश्वास लेते है, क्योंकि वे शेष मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त सुखी होते हैं, इस कारण उनका उच्छ्वास-निश्वास कादाचित्क (कभी-कभी) होता है / अल्पशरीर मनुष्यों के बार-बार प्राहार एवं उच्छ्वास का कारण-अल्पशरीर वाले मनुष्य बार-बार अल्प आहार करते रहते हैं, क्योंकि छोटे बच्चे अल्पशरीर वाले होते हैं, वे बार-बार थोड़ाथोड़ा पाहार करते देखे जाते हैं तथा अल्पशरीर वाले सम्मूच्छिम मनुष्यों में सतत पाहार सम्भव है; अल्पशरीर वालों में उच्छ्वास-निःश्वास भी बार-बार देखा जाता है, क्योंकि उनमें प्रायः दुःख की बहुलता होती है। पूर्वोत्पन्न मनुष्यों में शुद्ध वर्णादि-~~जो मनुष्य पूर्वोत्पन्न होते हैं, उनमें तारुण्य के कारण शुद्ध वर्ण आदि होते हैं। सरागसंयत एवं वीतरागसंयत का स्वरूप-जिनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं हुआ है, किन्तु जो संयमी हैं, वे सरागसंयमी कहलाते हैं, किन्तु जिनके कषायों का सर्वथा उपशम या क्षय हो चुका है, वे वीतरागसंयमी कहलाते हैं / वीतरागसंयमी में वीतरागत्व के कारण प्रारम्भादि कोई क्रिया नहीं होती। सरागसंयतों में जो अप्रमत्त संयमी होते हैं, उनमें एकमात्र मायाप्रत्यया और उसमें भी केवल संज्वलनमायाप्रत्यया क्रिया होती है, क्योंकि वे कदाचित् प्रवचन (धर्मसंघ) की बदनामी को दूर करने एवं शासन की रक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं। उनका कषाय सर्वथा क्षीण नहीं हुआ है / किन्तु जो प्रमत्तसंयत होते हैं, वे प्रमादयोग के कारण प्रारम्भ में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए उनमें प्रारम्भिकी क्रिया सम्भव है तथा क्षीणकषाय न होने के कारण उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी समझ लेनी चाहिए / शेष सब वर्णन स्पष्ट है / वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों को आहारादि विषयक प्ररूपरणा 1143. वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं (सु. 1131-35) / 1. 'अठ्ठमभत्तस्स आहारो' इति वचनात् / 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 340-341 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org