________________ 248] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रारम्मिको प्रादि क्रियाओं के लक्षण-प्रारम्भिकी-जीव-हिंसाकारी प्रवृत्ति (व्यापार) आरम्भ कहलाती है / आरम्भ से होने वाली कर्मबन्धकारणभूत क्रिया प्रारम्भिकी है। धर्मोपकरणों से भिन्न पदार्थों का ममत्ववश स्वीकार करना अथवा धर्मोपकरणों के प्रति मूच्र्छा होना परिग्रह है, उसके कारण होने वाली क्रिया पारिग्रहिकी किया है। माया, उपलक्षण से क्रोधादि के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया है / अप्रत्याख्यान क्रिया-अप्रत्याख्यानपापों से अनिवृत्ति के कारण होने वाली क्रिया / मिथ्यादर्शनप्रत्यया--मिथ्यात्व के कारण होने वाली क्रिया / शंका-समाधानयापि मिथ्यात्व. अविरति, कषाय और योग ये चार कर्मबन्ध के कारण बताए गए हैं, जबकि यहाँ प्रारम्भिकी आदि क्रियाएँ कर्मबन्ध को कारण बताई गई हैं, अत: दोनों में विरोध है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यहाँ प्रारम्भ और परिग्रह शब्द से 'योग' को ग्रहण किया गया है क्योंकि योग प्रारम्भ-परिग्रहरूप होता है, अतएव इनमें कोई विरोध नहीं है।' असुरकुमारादि भवनपतियों में समाहारादि सप्त प्ररूपणा-- 1131. असुरकुमारा णं भंते ! सच्चे समाहारा ? स च्चेव पुच्छा / गोयमा ! णो इणठे समठे, जहा जेरइया (सु. 1124) / [1131 प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार क्या समान प्राहार वाले हैं ? इत्यादि पृच्छा (पूर्ववत्)। [1131 उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है / (शेष सब निरूपण) (सू. 1124 के अनुसार) नैरयिकों (की पाहारादि-प्ररूपणा) के समान (जानना चाहिए)। 1132. असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुटवोववष्णगा य पच्छोववण्णगा य / तस्थ ण जे ते पुन्वोववष्णगा ते णं महाकम्मतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववष्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा, से एएणठेणं गोयमा | एवं उच्चति असुरकुमारा णो सन्वे समकम्मा। [1132 प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार समान कर्म वाले हैं ? [1132 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से कहते हैं कि सभी असुरकुमार समान कर्म वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक / उनमें से जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे महाकर्म वाले हैं। उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे अल्पतरकर्म वाले हैं। इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी असुरकुमार समान कर्म वाले नहीं हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 335 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org