________________ 244 ] [प्रज्ञापनासूत्र 1127. एवं जहेव षण्णेण भणिया तहेव लेस्सासु वि विसुद्धलेस्सतरागा अविसुद्धलेस्सतरागा य भाणियन्वा 4 // [1127] जैसे वर्ण की अपेक्षा से नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहा है, वैसे ही लेश्या की अपेक्षा से भी नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहना चाहिए। -चतुर्थद्वार / / 4 / / 1128. रइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा? गोयमा ! जो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति रइया णो सम्वे समवेयणा ? गोयमा ! रइया वुविहा पण्णत्ता, तं जहा–सणिभूया य प्रसण्णिभूया य / तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं महावेदणतरागा। तत्थ गंजे ते असण्णिभूया ते ण अप्पवेदणतरागा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वच्चति नेरइया नो सव्धे समवेयणा 5 / [1128 प्र.] भगवन् ! सभी नारक समान वेदना बाले होते हैं ? [1128 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र. भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सभी नारक समवेदना वाले नहीं होते? [उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे हैं / वे इस प्रकार-संज्ञीभूत (जो पूर्वभव में संज्ञी पंचेन्द्रिय थे) और असंज्ञीभूत (जो पूर्वभव में असंज्ञी थे)। उनमें जो संज्ञीभूत होते हैं, वे अपेक्षाकृत महान् वेदना वाले होते हैं और उनमें जो असंज्ञीभूत होते हैं, वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी नैरयिक समवेदना वाले नहीं होते। -पंचमद्वार ||5|| 1126. रइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! णो इणठे समझें। से केणट्टेणं भंते ! एवं बच्चति गेरइया णो सम्वे समकिरिया ? गोयमा! रइया तिविहा पणत्ता, तं जहा-सम्मट्ठिी मिच्छट्ठिी सम्मामिच्छट्टिो / तत्थ णजे ते सम्मट्टिी तेसि णं चत्तारि किरियानो कज्जंति, तं जहा–प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छट्ठिी जे य सम्मामिच्छट्टिी तेसि नियतामो पंच किरियाप्रो कज्जति, तं जहा–प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 प्रपच्चक्वाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति णेरइया णो सम्वे समकिरिया 6 / [1129 प्र.] भगवन् ! सभी नारक क्या समान क्रिया वाले होते हैं ? [1129 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि सभी नारक समान क्रिया वाले नहीं होते? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org