________________ 242] [प्रज्ञापनासूत्र द्रव्य भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अयोगिकेवली में अघाति कर्मों का सद्भाव होने पर भी लेश्या का अभाव होता है। अतएव पारिशेष्य न्याय से लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य ही मानना उचित है / वे ही योगान्तर्गत द्रव्य, जब तक कषायों की विद्यमानता है, तब तक उनके उदय को भड़काने वाले होते हैं, क्योंकि योग के अन्तर्गत द्रव्यों में कषाय के उदय को भड़काने का सामर्थ्य देखा जाता है / लेश्या कर्मों की स्थिति का कारण नहीं है, किन्तु कषाय स्थिति के कारण हैं। जो लेश्याएँ कषायोदयान्तर्गत होती हैं, वे ही अनुभागबन्ध का हेतु हैं / ' नैरयिकों में समाहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा 1124. रइया णं भंते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सवे समुस्सासणिस्सासा? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति णेरइया णो सब्वे समाहारा जाव णो सब्वे समुस्सासहिस्सासा ? गोयमा! णेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा--महासरीरा य अप्पसरोरा य / तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले प्राहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेंति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं प्राहारेंति अभिक्खणं परिणामेंति अमिक्खणं ऊससंति अभिक्षणं जोससंति / तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अपतराए पोग्गले प्राहारेति अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति अप्पतराए पोग्गले ऊससंति अप्पतराए पोग्गले गोससंति, प्राहच्च आहारेंति प्राहच्च परिणामेति माहच्च ऊससंति प्राहच्च णीससंति, से एतेणठेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ रइया णो सम्वे समाहारा णो सम्वे समसरीरा णो सब्वे समुस्सासणीसासा 1 / [1124 प्र.] भगवन् ! क्या नारक सभी समान पाहार वाले हैं, सभी समान शरीर वाले हैं तथा सभी समान उच्छ्वास-नि:श्वास वाले होते हैं ? [1124 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक सभी समाहार नहीं हैं, यावत् सम उच्छ्वास-नि:श्वास वाले नहीं होते? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार-महाशरीर वाले और अल्पशरीर वाले / उनमें से जो महाशरीर वाले नारक होते हैं, वे बहुत अधिक पदगलों का आहार करते हैं. प्रभूततर पुद्गलों को परिणत करते हैं, बहुत-से पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं / वे बार-बार प्रहार करते हैं, बार-बार (पुद्गलों को) परिणत करते हैं, बार-बार उच्छ्वसन करते हैं और बार-बार निःश्वसन करते हैं। उनमें जो छोटे (अल्प) शरीर वाले हैं. वे अल्पतर ( थोड़े ) पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को परिणत करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं। वे कदाचित् 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 330-331 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग 4, पृ. 4-5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org