________________ सत्तरहवा लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [ 243 आहार करते हैं, कदाचित् (पुद्गलों को) परिणत करते हैं तथा कदाचित् उच्छ्वसन करते हैं और कदाचित् निःश्वसन करते हैं। इस हेतु से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नारक सभी समान पाहार वाले नहीं होते, समान शरीर वाले नहीं होते और न ही समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं। ~~-प्रथम द्वार // 1 // 1125. पेरइया णं भंते सम्बे समकम्मा ? गोयमा ! गो इणठे समठे / से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? रइया णो सम्वे समकम्मा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा-पुन्वोयवाणगा य पच्छोषण्णगा य / तस्थ णं जे ते पुवोवषण्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा / तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं महाफम्मतरागा, एएणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति रइया णो सब्बे समकम्मा 2 / [1125 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या सभी समान कर्म वाले होते हैं ? [1125 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.) भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक सभी समान कर्म वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक (पहले उत्पन्न हुए) और पश्चादुपपन्नक (पीछे उत्पन्न हुए) / उनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे (अपेक्षाकृत) अल्प कर्म वाले हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे महाकर्म (बहुत कर्म) वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान कर्म वाले नहीं होते। -द्वितोय द्वार / / 2 / / 1126. रइया णं भंते ! सब्बे समवण्णा? गोयमा ! णो इणठे समठे / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति जेरइया णो सम्वे समवण्णा ? गोयमा ! औरइया दुविहा पण्णता, तं जहा-पुन्वोक्वण्णगा य पच्छोववण्णगा य / तत्थ णं जे ते पुबोववष्णगा ते गं विसुद्धवण्णतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते ण अविसुद्ध षण्णतरागा, से एएणटठेणं गोयमा ! एवं पुच्चति रइया णो सो समवण्णा 3 / [1126 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सभी समान वर्ण वाले होते हैं ? [1126 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक / उनमें से जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अधिक विशुद्ध वर्ण वाले होते हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक होते हैं, वे अविशुद्ध वर्ण वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते / -तृतीय द्वार // 3 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org