________________ सोलहवां प्रयोगपद ] [ 237 1122. से कि तं बंधणविमोयणगती?' बंधविमोयणगती जणं अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा भल्लाण वा फणसाण वा दाडिमाण वा पारेवताण वा अक्खोडाण वा चोराण वा बोराण वा तिदुयाण वा पक्काणं परियागयाणं बंधणामो विप्पमुक्काणं णिवाघाएणं अहे वीससाए गती पवत्तइ / से तं बंधणविमोयणगती 17 / [से तं विहायगती। से तं भइपबाए।] // पण्णवणाए भगवतीए सोलसमं पप्रोगपयं समत्तं / / [1122 प्र.] वह बन्धनविमोचनति क्या है ? [1122 उ.] अत्यन्त पक कर तैयार हुए, अतएव बन्धन से विमुक्त (छुटे हुए) पाम्रों, आम्रातकों, बिजौरों, बिल्वफलों (बेल के फलों), कवीठों, भद्र नामक फलों, कटहलों (पनसों), दाडिमों, पारेवत नामक फल विशेषों, अखरोटों, चोर फलों (चारों), बोरों अथवा तिन्दुकफलों की रुकावट (व्याघात) न हो तो स्वभाव से ही जो अधोगति होती है, वह बन्धनविमोचनगति है। यह हुमा बन्धनविमोचनगति का स्वरूप / / 17 / / इसके साथ ही विहायोगति की प्ररूपणा पूर्ण हुई। यह हुमा गतिप्रपात का वर्णन / विवेचन-गतिप्रपात के भेद-प्रभेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण-प्रस्तुत 37 सूत्रों (सू. 1086 से 1122 तक) में प्रयोगगति आदि पांचों प्रकार के गतिप्रपातों के स्वरूप एवं प्रकारों की प्ररूपणा की गई है। विहायोगति की व्याख्या-आकाश में होने वाली गति को विहायोगति कहते हैं। वह 17 प्रकार की है / (1) स्पृशद्गति-परमाणु आदि अन्य वस्तुओं के साथ स्पृष्ट हो-होकर अर्थात्परस्पर सम्बन्ध को प्राप्त हो करके जो गमन करते हैं, वह स्पृशद्गति कहलाती है। (2) अस्पृशद्गति-परमाणु आदि अन्य परमाणु आदि से अस्पृष्ट रहकर यानि परस्पर सम्बन्ध का अनुभव न करके जो गमन करते हैं, वह अस्पृशद्गति है। जैसे-~~-परमाणु एक ही समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त तक पहुँच जाता है / (3) उपसम्पद्यमानगति-किसी दूसरे का आश्रय लेकर (यानी दूसरे के सहारे से) गमन करना / जैसे-धन्ना सार्थवाह के आश्रय से धर्मघोष आचार्य का गमन / (4) अनुपसम्पद्यमानति-बिना किसी का आश्रय लिये मार्ग में गमन करना। (५)पुद्गलगति-पुद्गल की गति। (6) मण्डकगति-मेंढक की तरह उछल-उछल कर चलना / (7) नौकागति-नौका द्वारा महानदी आदि में गमन करना / (8) नयगति-नेगमादि नयों द्वारा स्व-स्वमत की पुष्टि करना अथवा सभी नयों द्वारा परस्पर सापेक्ष होकर प्रमाण से अबाधित वस्तु को व्यवस्थापना करना। (6) छायागति-छाया का अनुसरण (अनुगमन) करके अथवा उसके सहारे से गमन करना। (10) छायानुपातगति-छाया का अपने निमित्तभूत पुरुष का अनुपात–अनुसरण करके गति करना छायानुपातगति है; क्योंकि छाया पुरुष का अनुसरण करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुसरण नहीं करता / (11) लेश्यागति-तिर्यचों और मनुष्यों के कृष्णादि लेश्या के द्रव्य नीलादि लेश्या के द्रव्यों को प्राप्त करके तद्रूप में परिणत होते हैं, वह लेश्यागति है। (12) लेश्यानुपातगति-लेश्या के 1. ग्रन्थाग्रम 5000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org