________________ 238] [प्रज्ञापनासूत्र अनुपात अर्थात्-अनुसार गमन करना लेश्यानुपातगति है। जीव लेश्याद्रव्यों का अनुसरण करता है, लेश्याद्रव्य जीव का अनुसरण नहीं करता। जैसा कि मूलपाठ में कहा गया है—जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वह उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। (13) उदृिश्यप्रविभक्तगतिप्रविभक्त यानि प्रतिनियत आचार्यादि का उद्देश्य करके उनके पास से धर्मोपदेश सुनने या उनसे प्रश्न पूछने के लिए जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है / (14) चतुःपुरुषप्रविभक्तगतिचार प्रकार के पुरुषों को चार प्रकार की प्रविभक्त-प्रतिनियत गति चतुःपुरुषप्रविभक्तगति कहलाती है। (15) वक्रगति–चार प्रकार से वक्र—टेढी-मेढी गति करना / वक्रगति के चार प्रकार ये हैंघट्टनता-खंजा (लंगड़ी) चाल (गति), स्तम्भनता-गर्दन में धमनी आदि नाड़ी का स्तम्भन होना अथवा प्रात्मा के अंगप्रदेशों का स्तब्ध हो जाना स्तम्भनता है, श्लेषणता-घुटनों आदि के साथ जांघों आदि का संयोग होना श्लेषणता है, प्रपतन-ऊपर से गिरना। (16) पंकगति-पंक अर्थात् कीचड़ में गति करना / उपलक्षण से पंक शब्द से 'जल' का भी ग्रहण करना चाहिए / अतः पंक अथवा जल में अपने शरीर को किसी के साथ बांध कर उसके बल से चलना पंकगति है। (17) बन्धनविमोचनगति-ग्राम प्रादि फलों का अपने वन्त (बधन) से छट कर स्वभावत: नीचे गिरना, बन्धनविमोचनगति है।" सपक्ष सप्रतिदिक्-पक्ष का अर्थ है-पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण रूप पार्श्व / प्रतिदिक का अर्थ है-विदिशाएँ / इनके साथ / // प्रज्ञापनासूत्र : सोलहवां प्रयोगपद समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 328-329 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org