Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सोलहवां प्रयोगपद [235 [1114 प्र.] छायागति किसे कहते हैं ? [1114 उ.] अश्व की छाया, हाथी की छाया, मनुष्य की छाया, किन्नर की छाया, महोरग की छाया, गन्धर्व की छाया, वृषभछाया, रथछाया, छत्रछाया का आश्रय करके (छाया का अनुसरण करके या छाया का आश्रय लेने के लिए) जो गमन होता है, वह छायागति है। यह है छायागति का वर्णन || 1115. से कि तं छायाणुवातगती ? छायाणवातगतो जण्णं पुरिसं छाया अणुगच्छति णो पुरिसे छायं अणुगच्छति / से तं छायाणुवातगती 10 / [1115 प्र.} छायानुपातगति किसे कहते हैं ? [1115 उ.] छाया पुरुष आदि अपने निमित्त का अनुगमन करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुगमन नहीं करता, वह छायानुपातगति है / यह हुमा छायानुपातगति (का स्वरूप / ) // 10 // 1116. से कि तं लेस्सागती? लेस्सागती जण्णं कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भज्जो परिणमति, एवं गोललेस्सा काउलेस्सं पण तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए परिणमति, एवं काउलेस्सा वि तेउलेस्सं, तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सं, पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव परिणमति / से तं लेस्सागती 11 / [1116 प्र.] लेश्यागति का क्या स्वरूप है ? [1116 उ.] कृष्णलेश्या (के द्रव्य) नीललेश्या (के द्रव्य) को प्राप्त होकर उसी के वर्णरूप में, उसी के गन्धरूप में, उसी के रसरूप में तथा उसी के स्पर्शरूप में बार-बार जो परिणत होती है, इसी प्रकार नीललेश्या भी कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णरूप में यावत् उसी के स्पर्शरूप में जो परिणत होती है, इसी प्रकार कापोतलेश्या भी तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर जो उसी के वर्णरूप में यावत् उसी के स्पर्शरूप में परिणत होती है, वह लेश्यागति है / यह है लेश्यागति का स्वरूप // 11 // 1117. से कि तं लेस्सागुवायगती? लेस्साणुवायगती जल्लेस्साई दवाइं परियाइत्ता कालं करेति तल्लेस्सेसु उववज्जति / तं जहा--कण्हलेन्सेसु वा जाव सुक्कलेस्सेसु वा / से तं लेस्साणुवायगती 12 / (1117 प्र.] लेश्यानुपातगति किसे कहते हैं ? [1117 उ.] जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके (जीव) काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाले (जीवों) में उत्पन्न होता है। जैसे--कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले द्रव्यों में। (इस प्रकार की गति) लेश्यानुपातगति है। यह हुआ लेश्यानुपातगति का निरूपण / / 12 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org