Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ सोलहवां प्रयोगपद [ 233 [1105 प्र.] विहायोगति कितने प्रकार की है ? [1105 उ.] विहायोगति सत्तरह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--(१) स्पृशद्गति, 2. अस्पृशद्गति, 3. उपसम्पद्यमानगति, 4. अनुपसम्पद्यमानगति, 5. पुद्गलगति, 6. मण्डूकगति, 7. नौकागति, 8. नयगति, 9. छायागति, 10. छायानुपातगति, 11. लेश्यागति, 12. लेश्यानुपातगति, 13. उद्दिश्यप्रविभक्तगति, 14. चतुःपुरुषप्रविभक्तगति, 15. वक्रगति, 16. पंकगति और 17. बन्धनविमोचनगति / 1106. से कितं फुसमाणगती? कुसमाणगती जण्णं परमाणुपोग्गले दुपदेसिय जाव अणंतपदेसियाणं खंधाणं अण्णमण्णं फुसित्ता णं गती पवत्तइ / से तं फुसमाणगतो 1 / [1106 प्र.] वह स्पृशद्गति क्या है ? [1106 उ.] परमाणु पुद्गल की अथवा द्विप्रदेशी (से लेकर) यावत् (त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, षटप्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, वह स्पृशद्गति है / यह हुआ स्पृशद्गति का वर्णन // 1 // 1107. से किं तं प्रफुसमाणगती ? अफुसमाणगती जण्णं एतेसि चेव प्रफुसित्ता णं गती पवत्तइ / से तं अफुसमाणगती 2 // [1107 प्र.] अस्पृशद्गति किसे कहते हैं ? [1107 उ.] उन्हीं पूर्वोक्त परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की परस्पर स्पर्श किये विना ही जो गति होती है, वह अस्पृशद्गति है / यह हुअा अस्पृशद्गति का स्वरूप / / 2 / / 1108. से कि तं उपसंपज्जमाणगती ? उवसंपज्जमाणगती जणं रायं वा जुबरायं वा ईसरं बा तलवरं वा माइंबियं वा कोडुबियं वा इन्भं वा सिद्धि वा सेणावई वा सत्थवाहं वा उपसंपज्जित्ता णं गच्छति / से तं उवसंपज्जमाणगती 3 / [1108 प्र.] वह उपसम्पद्यमानगति क्या है ? [1108 उ.] उपसम्पद्यमानगति वह है, जिसमें व्यक्ति राजा, युवराज, ईश्वर (ऐश्वर्यशाली), तलवर (किसी नृप द्वारा नियुक्त पट्टधर शासक), माडम्बिक (मण्डलाधिपति), इभ्य (धनाढ्य), सेठ, सेनापति या सार्थवाह को आश्रय करके (उनके सहयोग या सहारे से) गमन करता हो। यह हुआ उपसम्पद्यमानगति का स्वरूप // 3 // 1106. से कि तं अणुवसंपज्जमाणगती ? अणुवसंपज्जमाणगती जणं एतेसि चेव अण्णमण्णं अणुवसंपज्जित्ता णं गच्छति / से तं प्रणुवसंपज्जमाणगती 4 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org