________________ सोलहवां प्रयोगपद] [227 बन्धनछेदनति-बन्धन का छेदन होना बन्धनछेदन है और उससे होने वाली गति बन्धनछेवनगति है। यह गति जीव के द्वारा विमुक्त (छोड़े हुए) शरीर की, अथवा शरीर से च्युत (बाहर कले हए) जीव की होती है। कोश के फटने से एरण्ड के बीज की जो ऊर्ध्वगति होती है, वह एक प्रकार की विहायोगति है, बन्धनछेदनगति नहीं, ऐसा टीकाकार का अभिमत है। उपपातगति–उपपात का अर्थ है--प्रादुर्भाव / वह तीन प्रकार का है-क्षेत्रोपपात, भवोपपात और नोभवोपपात / क्षेत्र का अर्थ है-आकाश, जहाँ नारकादि प्राणी, सिद्ध और पूदगल रहते हैं। भव का अर्थ है-कर्म के संपर्क से होने वाले जीव के नारकादि पर्याय / जिसमें प्राणी कर्म के वशवर्ती होते हैं, उसे मव कहते हैं। भव से अतिरिक्त, अथोत-कर्मसम्पजनित नारकत्व प्रादि पयायो र रहित पदगल अथवा सिद्ध नोभव हैं। उक्त दोनों (तथारूप पुदगल और सिद्ध) पूर्वोक्त भव के लक्षण से रहित हैं। इस प्रकार की उपपात रूप गति उपपातगति कहलाती है। विहायोगति-विहायस् अर्थात् आकाश में गति होना बिहायोगति है / गतिप्रपात के प्रभेद-भेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण-- 1086. से किं तं पयोगगती ? पप्रोगगतो पण्णरसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणप्पप्रोगगती जाव कम्मगसरीरकायच्पओगगती। एवं जहा पओगो भणियो तहा एसा वि भाणियब्वा / [1086 प्र.] (भगवन् ! ) वह प्रयोगगति क्या है ? [1086 उ.] गौतम ! प्रयोगगति पन्द्रह प्रकार की कही है। वह इस प्रकार-सत्यमन:प्रयोगगति (से लेकर) यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति / जिस प्रकार प्रयोग (पन्द्रह प्रकार का) कहा गया है, उसी प्रकार यह (गति) भी (पन्द्रह प्रकार की) कहनी चाहिए। 1087. जीवाणं भंते ! कतिविहा परोगगती पण्णता? गोयमा ! पण्णरसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणप्पयोगगती जाव कम्मासरोरकायप्पप्रोगगती। [1087 प्र.] भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की कही गई है ? [1087 उ.] गौतम ! (वह) पन्द्रह प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार-सत्यमनःप्रयोगगति से लेकर यावत् कार्मणशरीरप्रयोगगति / 1088. रइयाणं भंते ! कतिविहा पोगगती पण्णता ? गोयमा! एक्कारसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जइविहा तस्स ततिविहा भाणितवा जाव वेमाणियाणं / [1088 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की प्रयोगगति कही गई है ? [1088 उ.] गौतम ! नैरयिकों की प्रयोगगति ग्यारह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-सत्यमनःप्रयोगगति इत्यादि / इस प्रकार उपयोग करके (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जिसकी जितने प्रकार की गति है, उसकी उतने प्रकार की गति कहनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org