________________ 226] [प्रज्ञापनासूत्र वाणव्यन्तरादि देवों को विभाग से प्रयोगप्ररूपरणा 1084. वाणमंतर-जोइसिय-बेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. 1079) / [1084] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग (सू. 1079 में उक्त) असुरकुमारों के प्रयोग के समान समझना चाहिए। विवेचन-वाणन्यन्तरादि देवों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा–प्रस्तुत (सूत्र 1084) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की प्ररूपणा असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई है। पांच प्रकार का गतिप्रपात 1085. कतिविहे गं भंते ! गतिप्पवाए पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-पप्रोगगती 1 ततगती 2 बंधणच्छेयणगती 3 उववायगती 4 विहायगती 5 / [1085 प्र.] भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? [1085 उ.] गौतम ! (गतिप्रपात) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) प्रयोगगति, (2) ततगति, (3) बन्धनछेदनगति, (4) उपपातगति और (5) विहायोगति / विवेचन-पांच प्रकार का गतिप्रपात-प्रस्तुत सूत्र में प्रयोगगति आदि पांच प्रकार के गतिप्रपात का प्रतिपादन किया गया है। गतिप्रपात की व्याख्या-गमन करना, गति या प्राप्ति है। वह प्राप्ति दो प्रकार की है—देशान्तरविषयक और पर्यायान्तरविषयक / दोनों में गति शब्द का प्रयोग देखा जाता है / यथा-- 'देवदत्त कहाँ गया है ? पत्तन को गया' तथा 'कहते ही वह कोप को प्राप्त हो गया।' इस प्रकार के उभयविध लौकिक प्रयोग की तरह उभयविध लोकोत्तर-प्रयोग भी होता है। जैसे—'परमाणु एक समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त (तक) को जाता है' तथा 'उन-उन अवस्थान्तरों को प्राप्त होता है। अतः यहाँ गति का अर्थ है-एक देश से दूसरे देश को प्राप्त होना, अथवा एक पर्याय को त्याग कर दूसरे पर्याय को प्राप्त होना / गति का प्रपात गतिप्रपात कहलाता है।' प्रयोगगति—विशेष व्यापार रूप प्रयोग के पन्द्रह प्रकार इसी पद में पहले कहे जा चुके हैं। प्रयोग रूप गति प्रयोगगति है / यह देशान्तरप्राप्ति रूप है, क्योंकि जीव के द्वारा प्रेरित सत्यमन आदि के पुद्गल थोड़ी या बहुत दूर देशान्तर तक गमन करते हैं। ततगति--विस्तीर्ण गति ततगति कहलाती है। जैसे-जिनदत्त ने किसी ग्राम के लिए प्रस्थान किया है, किन्तु अभी तक उस ग्राम तक पहुँचा नहीं है, बीच रास्ते में हैं और एक-एक कदम आगे बढ़ रहा है। इस प्रकार की देशान्तरप्राप्ति रूप गति ततगति है। यद्यपि कदम बढ़ाना जिनदत्त के शरीर का प्रयोग ही है, इस कारण इस गति को भी प्रयोगगति के अन्तर्गत माना जा सकता है, तथापि इसमें विस्तृतता की विशेषता होने से इसका प्रयोगगति से पृथक् कथन किया गया है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 327-328 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org