________________ सोलहवां प्रयोगपद ] [215 [1077 प्र.] भगवन् ! जीव सत्यमनःप्रयोगी होते हैं अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? [1077 उ.] गौतम ! (1) जीव सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् (मृषामनःप्रयोगी, सत्यमृषामनःप्रयोगी, असत्यामृषामनःप्रयोगी आदि तथा वैक्रिय मिश्रशरीरकायप्रयोगी भी एवं कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी, (इस प्रकार तेरह पदों के वाच्य) होते हैं, (1) अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी होता है, (2) अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी होते हैं, (3) अथवा एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, (4) अथवा बहुत-से जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं। ये चार भंग हुए। तेरह पदों वाले प्रथम भंग की इनके साथ गणना की जाए तो पांच भंग हो जाते हैं / (द्विकसंयोगी चार भंग)--१. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्नशरीरकाय प्रयोगी, 2. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से प्राहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, 3. अथवा बहुत-से पाहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, 4. अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी। ये समुच्चय जीवों के प्रयोग की अपेक्षा से आठ भंग हुए। (इनमें प्रथम भंग को मिलाने से नौ भंग होते हैं।) विवेचन--समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा---प्रस्तुत सूत्र (1077) में समुच्चय जीवों में प्रयोग की अपेक्षा से पाए जाने वाले पाठ भंगों का निरूपण किया गया है / समुच्चय जीवों में तेरह पदों का एक भंग-समुच्चय जीवों में आहारक और आहारकमिश्र को छोड़ कर शेष 13 पदों का एक भंग होता है / तात्पर्य यह है कि सदैव बहुत-से जीव सत्यमनप्रयोगी भी पाए जाते हैं, असत्यमनःप्रयोगी भी, यावत् वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी पाए जाते हैं, तथैव कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी पाए जाते हैं। नारक जीव सदैव उपपात के पश्चात् उत्तरवैक्रिय आरम्भ कर देते हैं, इसलिए सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं / वनस्पति आदि के जीव सदैव विग्रह के कारण अन्तरालगति में पाये जाते हैं, इसलिए वे सदैव कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, किन्तु आहारकशरीरी कदाचित् सर्वथा नहीं पाए जाते; क्योंकि उनका अन्तर उत्कृष्टतः छह मास तक का सम्भव है।' अर्थात् छह महीनों तक एक भी आहारकशरोरी न पाया जाए, यह भी सम्भव है / जब वे पाए भी जाते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन, तथा उत्कृष्टत: सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) तक होते हैं। इस प्रकार जब आहारकशरीरकायप्रयोगी और आहारक रकायप्रयोगी एक भी नहीं पाया जाता, तब बहत जीवों की अपेक्षा से बहवचनविशिष्ट 13 पदोंवाला एक भंग होता है, क्योंकि उक्त 13 पदों वाले जीव सदैव बहुत रूप में रहते हैं / पाठ भंगों का क्रम-प्रथम भंग-जब पूर्वोक्त तेरह पदों के साथ एक प्राहारकशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब एक भंग होता है / द्वितीयभंग-पूर्वोक्त तेरह पद वालों के साथ बहुत-से 1. पाहारगाइं लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाई / उक्कोसेण नियमा, एक समयं जहन्नेणं / / 1 / / होताई जहन्नेणं इक्क दो तिष्णि पंच व हवति / उक्कोसेणं जुग पुहत्तमेतं सहस्साणं / / 2 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org