________________ 216] [प्रज्ञापनासूत्र आहारकशरीरकायप्रयोगी पाए जाते हैं, तब दूसरा भंग होता है। तृतीय-चतुर्थ भंग-इसी प्रकार पूर्वोक्त 13 पदों के साथ जब एक जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा बहुत जीव पाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, तब तीसरा और चौथा भंग होता हैं। यों क्रमश: ये 4 भंग हुए / पंचम से अष्टम भंग तक—चार भंग द्विकसंयोगी होते हैं, जो पहले बताए जा चुके हैं। पूर्वोक्त तेरह पदों वाले भंग को मिलाने से ये सब 9 भंग होते हैं।' नारकों और भवनपतियों को विभाग से प्रयोगप्ररूपणा 1078. रइया णं भंते ! कि सच्चमणप्पयोगी जाव कि कम्मासरीरकायप्पनोगी? गोयमा ! रइया सवे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि जाव वेउम्वियमीससरोरकायप्पयोगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पोगो य 1 अहवेगे य कम्मासरीरकायप्परोगिणो य 2 / [1078 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सत्यमनःप्रयोगी होते हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? [1078 उ.] गौतम ! नैरयिक सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी भी होते हैं; १-अथवा कोई एक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, २अथवा कोई अनेक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / 1076. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि / / 1079] इसी प्रकार असुरकुमारों की भी यावत् स्तनितकुमारों की प्रयोगप्ररूपणा करनी चाहिए। विवेचन–नारकों और भवनपतियों को विभाग से प्रयोगप्ररूपणा-प्रस्तुत दो सूत्रों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से नारकों और भवनपतिदेवों की प्रयोग-सम्बन्धी तीन भगों की प्ररूपणा की नारकों में सदैव पाए जाने वाले बहुत्वविशिष्ट दस पद-नारकों में सत्यमनःप्रयोगी से लेकर वैक्रियमिवशरीरकायप्रयोगो पर्यन्त सदैव बहुत्वविशिष्ट दस पद पाए जाते हैं, किन्तु कार्मणशरीरकायप्रयोगी नारक कभी-कभी एक भी नहीं पाया जाता; क्योंकि नरकगति के उपपात का विरह बारह मुहर्त का कहा गया है। यह एक भंग हुमा / द्वितीय-तृतीय भंग -जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी नारक पाए जाते हैं, तब जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट असंख्यात पाए जाते हैं / इस दृष्टि से जब एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब द्वितीय भंग होता है और जब बहुत-से कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाये जाते हैं, तब तृतीय भंग होता है / असुरकुमारादि दशविध भवनवासियों को एकत्व-बहुत्व-विशिष्ट प्रयोग-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 323-324 2. भगवतीसूत्र श. 8 उ. 1 में देवों और नारकों में अपर्याप्त दशा में ही वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोग माना गया है। 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 324 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org