________________ 218] {प्रज्ञापनासूत्र भी होता है। १-अथवा कोई एक (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक) कार्मणशरीरकायप्र योगी भी होता है, २-अथवा बहुत-से (पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / विवेचन-एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विभाग से प्रयोगसम्बन्धी प्ररूपणा---प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1080 से 1082 तक) में एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंचपंचेन्द्रिय तक के जीवों की एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा से प्रयोग सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष पथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव औदारिकशरीरकायप्रयोगी, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी एवं कार्मणशरीरकायप्रयोगी सदैव बहसंख्या में पाए जाते हैं, इसलिए ये तीनों पद बहुवचनान्त हैं, यह एक भंग है; किन्तु वायुकायिकों में पूर्वोक्त तीन प्रयोगों के अतिरिक्त क्रियद्विक (वै क्रियशरीरकायप्रयोग एवं वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग) भी पाए जाते हैं / अर्थात्---वायुकायिकों में ये पांचों पद सदैव बहुत्वरूप में पाए जाते हैं। इन पांचों का बहुत्वरूप एक भंग होता है। सभी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव असत्यामृषावचनप्रयोगी होते हैं, क्योंकि वे न तो सत्यवचन का प्रयोग करते हैं, न असत्यवचन का प्रयोग करते हैं और न ही उभयरूप वचन का प्रयोग करते हैं / वे औदारिकशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं और औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं / यद्यपि द्वीन्द्रियादि जीवों के अन्तर्मुहूर्तमात्र उपपात का विरहकाल है, किन्तु उपपातविरहकाल का अन्तमुहर्त छोटा है और औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहर्त प्रमाण में बहुत बड़ा होता है। अतः उनमें औदारिकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी सदैव पाये जाते हैं। इस प्रकार इन तीनों का एक भंग हुआ। उनमें कभी-कभी एक भी कार्मणशरीरकायप्रयोगी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरह अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। जब वे पाए जाते हैं तो जघन्यतः एक या दो और उत्कृष्टतः असंख्यात पाए जाते हैं / इस प्रकार जब एक भी कार्मणशरीरकायप्रयोगी नहीं पाया जाता है, तब पूर्वोक्त तीनों पदों का प्रथम भंग होता है। जब एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब एकत्वविशिष्ट दूसरा भंग होता है / जब बहुत-से द्वीन्द्रियादि जीव कार्मणशरीरप्रयोगी होते हैं, तब तीसरा भंग होता है। __ पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का प्रयोग विषयक कथन नारकों के समान जानना चाहिए, किन्तु उनमें विशेषता यह है कि वे नारकों की तरह वैक्रियशरीरकायप्रयोगी तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी के उपरान्त औदारिकशरीरकायप्रयोगी और औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं। इसके सिवाय 4 प्रकार के मनःप्रयोग और चार प्रकार के वचनप्रयोग, इन 8 पदों को पूर्वोक्त 4 पदों में मिलाने से कुल 12 पद हुए, जो पंचेन्द्रियतिर्यंचों में सदैव बहुत रूप में पाए जाते हैं। कार्मणशरीरकायप्रयोगी कभी-कभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में एक भी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरहकाल अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाण कहा गया है / यो जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी एक भी नहीं होता, तब पूर्वोक्त प्रथम भंग होता है। ___ जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी एक होता है, तब दूसरा भंग होता है और जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी बहुत होते हैं, तब तीसरा भंग होता है।' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 324-325 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org