Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [ प्रज्ञापनासून 1058. एगमेगस्स णं भंते ! गैरइयस्स केवतिया भाविदिया प्रतीता ? गोयमा ! अणंता / केवतिया बल्लिगा? पंच / केवतिया पुरेक्खडा ? पंच का दस वा एक्कारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता था। [1058 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक के कितनी अतीत भावेन्द्रियाँ हैं ? [1058 उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। [प्र.] (उनकी) कितनी (भावेन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] (गौतम ! ) (वे) पांच हैं / [प्र.) (उनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी कही हैं ? [उ.] (गौतम !) वे पांच हैं, दस हैं, ग्यारह हैं, संख्यात हैं या असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं। 1056. एवं असुरकुमारस्स वि। गवरं पुरेक्खडा पंच वा छ वा संखेज्जा बा असंखेज्जा वा अर्णता वा / एवं जाव थणियकुमारस्स / [1056] इसी प्रकार असुरकुमारों की (भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पाँच, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं / इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक की (भावेन्द्रियों के विषय में समझ लेना चाहिए / ) 1060. एवं पुढविकाइय-प्राउकाइय-वणस्सइकाइयस्स बि, बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियस्स वि / तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि एवं चेव, णवरं पुरेक्खडा छ वा सत्त वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा। [1060] इसी प्रकार (एक-एक) पृथ्वीकाय, अकाय और वनपस्पतिकाय की तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की, तेजस्कायिक एवं वायुकायिक की (अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ छह, सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। 1061. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जाव ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स (सु. 1056) / गवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि त्ति भाणियव्वं / [1061] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक से लेकर यावत् ईशानदेव की प्रतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में (सू. 1056 में उक्त) असुरकुमारों की भावेन्द्रियों की प्ररूपणा की तरह कहना चाहिए। विशेष यह है, मनुष्य की पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती; इस प्रकार (सब पूर्ववत्) कहना चाहिए। 1062. सणंकुमार जाव गेवेज्जगस्स जहा पेरइयस्स (सु. 1057-58) / [1062] सनत्कुमार से लेकर ग्रैवेयकदेव तक की (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन) (सू. 1057-1058 में उक्त) नैरयिकों की वक्तव्यता के समान करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org