Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 203 होती हैं। अगर वह एक ही वार उत्पन्न होने वाला हो तो उसको आठ, दो वार नारकों में उत्पन्न हान वाला हा तो सोलह, तीन बार उत्पन्न होने वाला हो तो चौवीस, संख्यात बार उत्पन्न होने वाला हो तो संख्यात और असंख्यात या अनन्त वार उत्पन्न होने वाला हो तो भावी द्रव्येन्द्रियाँ भी क्रमश: असंख्यात या अनन्त होती हैं / एक नारक को पृथ्वीकायपने में प्रतीत बद्ध इन्द्रियाँ-एक नारक को अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त होती हैं। बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ बिलकुल नहीं होती, क्योंकि नरकभव में वर्तमान नारक का पृथ्वीकायिक के रूप में वर्तमान होना संभव नहीं है, इस कारण बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती। विजयादि पांच अनुत्तरौपपातिक देवों की प्रतीतादि द्रव्येन्द्रियाँ-जो जीव एक वार विजयादि विमानों में उत्पन्न हो जाता है, उसका फिर से नारकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों में जन्म नहीं होता / अतः उनमें नारकादि संबंधी द्रव्येन्द्रियाँ सम्भव नहीं हैं। सर्वार्थसिद्ध देवों के रूप में अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होतीं। नारक जीव अतीतकाल में कभी सर्वार्थसिद्ध जीव हुआ नहीं है। अतः सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में उसकी द्रव्येन्द्रियाँ असम्भव हैं / सर्वार्थसिद्ध विमान में एक वार उत्पन्न होने के पश्चात् मनुष्यभव पाकर जीव सिद्धि प्राप्त कर लेता है / वनस्पतिकायिकों की विजयादि के रूप में भावी द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होते हैं। बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ-मनुष्य और सर्वार्थसिद्ध देवों को छोड़कर सभी को स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात जाननी चाहिए। परस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ होती नहीं / क्योंकि जो जीव जिस भव में वर्तमान है, वह उसके अतिरिक्त परभव में वर्तमान नहीं हो सकता। वनस्पतिकायिकों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात होती हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर असंख्यात ही होते हैं।' बारहवाँ भावेन्द्रियद्वार 1056. कति णं भंते ! भाविदिया पण्णता ? गोयमा ! पंच माविदिया पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदिए जाव फासिदिए। [1056 प्र.] भगवन् ! भावेन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? {1056 उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं / वे इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रिय से (लेकर) स्पर्शेन्द्रिय तक। 1057. रइयाणं भंते ! कति भाविदिया पण्णता? गोयमा! पंच भाविदिया पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदिए जाब फासेंदिए / एवं जस्स जति इंदिया तस्स तत्तिया माणियव्या जाव वेमाणियाणं / [1057 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितनी भावेन्द्रियाँ कही गई हैं ? {1057 उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं। वे इस प्रकार हैं--श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय तक / इसी प्रकार जिसकी जितनी इन्द्रियाँ हों, उतनी वैमानिकों की भावेन्द्रियों तक कह लेनी चाहिए। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 315-316 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org