________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [205 1063. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स प्रतीया अणंता, बद्धलगा पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा / सव्वदसिद्धगदेवस्स प्रतीता अणंता, बद्धलगा पंच। केवतिया पुरेक्खडा ? पंच। [1063] विजय, वैजयन्त, जयन्त एवं अपराजित देव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियां पांच, दस, पन्द्रह या संख्यात हैं / सर्वार्थसिद्धदेव की प्रतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं। [प्र.] पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] वे पांच हैं। 1064. रइयाणं भंते ! केवतिया भाविदिया प्रतीया? गोयमा ! अणंता / केवतिया बद्धल्लगा? असंखेज्जा। केवतिया पुरेक्खडा? प्रणेता। एवं जहा दविदिएसु पोहत्तेणं दंडनो भणियो तहा भाविदिएसु वि पोहत्तेणं दंडप्रो भाणियव्यो, णवरं वणप्फइकाइयाणं बद्धल्लगा वि प्रणता / [1064 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की प्रतीत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1064 उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं / [प्र.] (भगवन् ! उनकी) बद्ध भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (वे) असंख्यात हैं। [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। इस प्रकार जैसे--द्रव्येन्द्रियों में पृथक्त्व (बहुवचन से) दण्डक कहा है, इसी प्रकार भावेन्द्रियों में भी पृथक्त्व-बहुवचन से दण्डक कहना चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की बद्ध भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं। 1065. एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स रइयत्ते केवइया भाविदिया प्रतीता? गोयमा ! अणंता, बङ्घल्लगा पंच, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / एवं असुरकुमारत्ते जाव थणियकुमारत्ते, णवरं बद्ध ल्लगा पत्थि। [1065 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की नैरयिकत्व के रूप में कितनी अतीत __ भावेन्द्रियाँ हैं ? [1065 उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org