________________ 64] [ प्रज्ञापनासून प्राज्ञापनी भाषा है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? मृषा नहीं है ? भगवान् ने इसका स्वीकृतिसूचक उत्तर दिया है, जिसका आशय यह है कि पूर्वोक्त तीनों स्थानों पर क्रमश: स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुंसकलिंग की ही विवक्षा होने से, अन्य धर्मों को गौण करके, उन्हीं से विशिष्ट पृथ्वी, अप् एवं धान्यरूप धर्मों का यह भाषा प्रतिपादन करती है। (8) सू. 856 में प्ररूपित प्रश्न का प्राशय यह है कि 'पृथ्वी' इस प्रकार की स्त्रीप्रज्ञापनी (स्त्रीत्वस्वरूप की प्ररूपणी), 'पाप' इस प्रकार की पुरुषप्रज्ञापनी (पुस्त्वस्वरूप-प्ररूपणी) तथा 'धान्यं इस प्रकार की नपुसक-प्रज्ञापनी (नपुसकत्वरूपप्ररूपणी) भाषा क्या आराधनी (मूक्तिमार्ग की अविरोधिनी) भाषा है ? यह भाषा मषा तो नहीं है ? अर्थात-इस प्रकार कहने वाले साधक को मिथ्याभाषण का प्रसंग तो नहीं होता? भगवान् ने इसके उत्तर में कहा कि यह भाषा आराधनी (मोक्षमार्ग के आराधन के योग्य) भाषा है, यह मृषा नहीं है; क्योंकि यह भाषा शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने वाली है। (6) सू. 857 में प्ररूपित प्रश्न समुच्चयरूप से अतिदेशात्मक है / उसका आशय यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से अन्य भी स्त्रीलिंगप्रतिपादक को स्त्रीवचन, पुल्लिगप्रतिपादक को पुरुषवचन तथा नपुसकलिंगप्रतिपादक को नपुंसकवचन के रूप में कहे जाने पर क्या वक्ता की वह भाषा प्रज्ञापनी (सत्य) है, मृषा नहीं है ? भगवान् इसका उत्तर भी स्वीकृतिसूचक देते हैं। जिसका आशय है कि यह प्रज्ञापनी है, शाब्दिक (शब्दानुशासन के) व्यवहार के अनुसार इसमें कोई दोष नहीं है। दोष तो तभी होता है, जब वस्तुस्वरूप कुछ और हो और कथन अन्य रूप में किया जाये / जिस वस्तु का जैसा वस्तुस्वरूप है, उसे वैसा ही कहा जाए तो उसमें क्या दोष है ?' विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वांगीण स्वरूप 858. भासा णं भंते ! किमादीया किपहवा किसंठिया किपज्जवसिया ? गोयमा ! भासा णं जोवादीया सरीरपहवा वज्जसंठिया लोगंतपज्जवसिया पण्णत्ता। [858 प्र.] भगवन् ! भाषा की आदि (मूल कारण) क्या है ? (कहाँ से है ?) (भाषा का) प्रभव (उत्पत्ति)-स्थान क्या है ? (भाषा) का आकार कैसा है ? भाषा का पर्यवसान (अन्त) कहाँ होता है ? [858 उ.] गौतम ! भाषा की प्रादि (मूल कारण) जीव है / (उसका) प्रभव (उत्पादस्थान) शरीर है / (भाषा) वज्र के आकार की है / लोक के अन्त में उसका पर्यवसान (अन्त) होता है, ऐसा कहा गया है। 856. भासा करो य पहवति ? कतिहिं च समरहिं भासती भासं? / भासा कतिप्यगारा ? कति वा भासा प्रणुमयामो? ||162 // सरीरप्पहवा भासा, दोहि य समएहि भासती भासं / भासा चउप्पगारा, दोण्णि य भासा अणुमयानो // 163 / / [८५९-प्रश्नात्मक गाथार्थ | भाषा कहाँ से उद्भूत होती है ? भाषा कितने समयों में बोली जाती है ? भाषा कितने प्रकार की है ? और कितनी भाषाएँ अनुमत हैं ? || 162 / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 245-255 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 3, पृ. 280 से 293 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org