________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] कारण यहाँ बहुवचन का प्रयोग उचित है। (3) सूत्र 851 में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि 'मानुषी से लेकर 'चिल्ललिका' तक तथा इसी प्रकार के अन्य 'या' एवं 'ई' अन्त वाले जितने भी शब्द हैं, क्या वे सब स्त्रीवचन हैं ? अर्थात्-यह सब क्या स्त्रीत्व की प्रतिपादिका भाषा है ? इस पृच्छा का तात्पर्य यह है कि यहां सर्व वस्तु त्रिलिंगी है। जैसे-यह ‘(अयं) मृत्रूपः' (मिट्टी के रूप में परिणत) है, यहाँ पुल्लिग है, '(इयं) मृत्परिणति घटाकारा परिणति है' यहाँ स्त्रीलिंग है, और '(इदं) वस्तु' है, यहाँ नपुसकलिंग है। इस प्रकार यहाँ एक ही वाच्य को तीनों लिंगों के प्रतिपादक बचनों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। ऐसी स्थिति में केवल एक स्त्रीलिंग मात्र का प्रतिपादक शब्द तीनों लिंगों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु का यथार्थरूप में वाचक कैसे हो सकता है ? 'नरसिंह' शब्द में केवल 'नर' शब्द या केवल 'सिंह' शब्द दोनों-नर एवं सिंह-का वाचक नहीं हो सकता, किन्तु लोकव्यवहार में स्त्रीलिंगी शब्द अपने-अपने वाच्य के वाचक देखे जाते हैं / अतः प्रश्न होता है कि क्या इस प्रकार के सभी वचन स्त्रीत्व के प्रतिपादक होते हैं ? भगवान् का उत्तर 'हाँ' में है / मानुषी से लेकर चिल्ललिका तक तथा इसी प्रकार के अन्य 'आ' 'ई' अन्त वाले शब्द स्त्रीवचन हैं, अर्थात-स्त्रीलिंग-विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादक हैं। इसका भावार्थ इस प्रकार है-~-यद्यपि वस्तू अनेक धर्मात्मक होती है, तथापि शब्दशास्त्र का न्याय यह है कि जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन करना इष्ट होता है, उसे मुख्य करके उसी धर्म से विशिष्ट धर्मी का प्रतिपादन किया जाता है, उसके सिवाय शेष जो भी धर्म होते हैं, उन्हें गौण करके अविवक्षित कर दिया जाता है। जैसे--किसी पुरुष में पुरुषत्व भी है, शास्त्रज्ञता भी है, दातृत्व, भोक्तृत्व, जनत्व तथा अध्यापकत्व भी है, फिर भी जब उसका पुत्र उसे आता देखता है तो कहता है-पिताजी पा रहे हैं ; उसका शिष्य कहता है—उपाध्याय पा रहे हैं। वैसे ही यहाँ भी मानुषी आदि सभी शब्द यद्यपि त्रिलिंगात्मक हैं, तथापि योनि, मदुता, अस्थिरता, चपलता आदि (स्त्रीत्व) को प्रधानता से विवक्षा करके, उससे विशिष्ट धर्मों को प्रधान करके जब (मानुषी आदि) धर्मी का प्रतिपादन किया जाता है, तब मानुषी आदि भाषा स्त्रीवाक्अर्थात्--स्त्रीत्व-प्रतिपादिका भाषा कहलाती है। (4-5) सूत्र 852 एवं 853 में प्ररूपित प्रश्नों के कारण भी पूर्ववत् समझना चाहिए कि-(४) मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द क्या पुरुषवाक् हैं-अर्थात् क्या यह सब पुल्लिगप्रतिपादक भाषा है? तथा (5) कांस्य से लेकर रत्न तक के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द क्या नपुसकवचन हैं, अर्थात्-क्या यह सब नपुंसकलिंग प्रतिपादक भाषा है ? इनके उत्तर का भी आशय पूर्ववत् ही समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि यद्यपि मनुष्य आदि शब्द तथा कांस्यादि शब्द त्रिलिगात्मक हैं, फिर भी प्रधानरूप से प्रस्त्व धर्म अथवा नंपुसकत्व धर्म की विवक्षा के कारण इन्हें क्रमश: पुल्लिग (पुरुषवचन) तथा नपुसकलिंग (नपुसकवचन) कहा जाता है / (6) सूत्र 854 के प्रश्नोत्तर का निष्कर्ष यह है कि पृथ्वी' यह स्त्रीवाक (स्त्रीलिंग विशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है, 'अप्' शब्द पुवाक् (पुल्लिगविशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है तथा 'धान्य' शब्द नपुसकवाक् (नपुंसकलिंगविशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है, यह भाषा प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य है, मृषा नहीं है, क्योंकि यह सत्य अर्थ का प्रतिपादन करती है / यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि 'आऊ' (अप् = जल) शब्द प्राकृत भाषा के व्याकरणानुसार पुल्लिग है, संस्कृत भाषा के अनुसार तो वह स्त्रीलिंग ही है। (7) सू. 855 में प्ररूपित प्रश्न का प्राशय है कि 'पृथ्वीं कुरु, पृथ्वीमानय' (पृथ्वी को बनाओ, पृथ्वी लामो), इस प्रकार जो स्त्री (स्त्रीलिंग की) आज्ञापनी भापा है। प्रापः आनय (पानी लामो), इस प्रकार जो पुरुष (पुल्लिग को) प्राज्ञापनी भाषा है तथा धान्यं आनय (धान्य लामो) इस प्रकार की जो नपुसक (नपुंसकलिंग की) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org