________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रेयम उद्देशक] [ 153 अल्पबहुत्व—प्रस्तुत चार सूत्रों में इन्द्रियों के अवगाहना, प्रदेश एवं अवगाहना-प्रदेश की अपेक्षा से तथा इन्द्रियों के कर्कश-गुरु एवं मृदु-लघु गुणों में अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। अवगाहना की दृष्टि से अल्पबहुत्व-अवगाहना की दृष्टि से सबसे कम प्रदेशों में अवगाढ़ चक्षुरिन्द्रिय है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा अत्यधिक प्रदेशों में अवगाढ़ है। उसकी अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय की अवगाहना संख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह और भी अधिक प्रदेशों में अवगाढ़ है। उससे जिह्वन्द्रिय अवगाहना की दृष्टि से असंख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि जिह्वन्द्रिय का विस्तार अंगुलपृथक्त्व-प्रमाण है, जबकि पूर्वोक्त चक्षु आदि तीन इन्द्रियाँ, प्रत्येक अंगल के असंख्यातवें भाग विस्तार वाली हैं। जिह्वन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक ही संगत होती है, असंख्यातगुणी अधिक नहीं, क्योंकि जिह्वन्द्रिय का विस्तार अंगुलपृथक्त्व-(दो अंगुल से नौ अंगुल तक) का होता है, जबकि स्पर्शनेन्द्रिय शरीर-परिमाण है। शरीर अधिक से अधिक बड़ा लक्ष योजन तक का हो सकता है। ऐसी स्थिति में वह कैसे असंख्यातगुणी अधिक हो सकती है ? अतएव जिह्वेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय को संख्यातगुणा अधिक कहना ही युक्तिसंगत है। इसी क्रम से प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से उपर्युक्त युक्ति के अनुसार अल्पबहुत्व की प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। इन्द्रियों के कर्कश-गुरु और मृदु-लघु गुणों का अल्पबहुत्व-पांचों इन्द्रियों में कर्कशता तथा मदता एवं गुरुता तथा लघता गण विद्यमान हैं। उनका अल्पबहत्व यहाँ प्ररूपित है। चक्ष, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शनेन्द्रियाँ अनुक्रम से कर्कश-गुरु-गुण में अनन्त-अनन्तगुणी अधिक हैं। इन्हीं इन्द्रियों के मृदु-लघुगुण पश्चानुक्रम से अनन्त-अनन्तगुणे अधिक बतलाए गए हैं / कर्कश-गुरुगुणों और मदु-लघुगुणों के युगपद् अल्पबहुत्व-विचार में स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी के मदु-लघुगुण अनन्तगुणे बताए हैं, उसका कारण यह है कि शरीर में कुछ ही ऊपरी प्रदेश शीत, आतप आदि के सम्पर्क से कर्कश होते हैं, तदन्तर्गत बहुत-से अन्य प्रदेश तो मृदु हो रहते हैं / अतएव स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कशगुरुगुणों की अपेक्षा से उसके मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे अधिक होते हैं।' चौवीस दण्डकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा 983. [1] गेरइयाणं भंते ! कइ इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा | पंचेंदिया पण्णता / तं जहा–सोइंदिए जाव फासिदिए / [983-1 प्र.] भगवन् ! नैरथिकों के कितनी इन्द्रियाँ कही हैं ? [983-1 उ.] गौतम ! (उनके) पांच इन्द्रियाँ कही हैं / वे इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रिय से लेकर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय तक / [2] गैरइयाणं भंते ! सोइंदिए किसंठिए पणते ? गोयमा ! कलंबुयासंठाणसंठिए पग्णत्ते। एवं जहेब प्रोहियाणं वत्तव्बया भणिया (सु. 974 तः 982) तहेव रइयाणं पि जाव अप्पाबहुयाणि दोणि वि। णवरं रइयाणं भंते ! फासिदिए किसंठिए पण्णते? 1. प्रजापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 296 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org