________________ 156 ] प्रज्ञापनासूत्र [985-8 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त कहे हैं। इसी प्रकार (उसके) मृदु-लघु गुणों के विषय में भी समझना चाहिए। [] एतेसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पुढविकाइयाणं फार्से दियस्स कक्खडगरुयगुणा, तस्स चेव मउयलहुयगुणा प्रणंतगुणा / [985-6 प्र.] भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुणों और मृदुलघु गुणों में से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [985-9 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों के स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश और गुरु गुण सबसे कम हैं, (उनकी अपेक्षा) मृदु तथा लघु गुण अनन्तगुणे हैं / 186. एवं प्राउकाइयाण विजाव वणप्फइकाइयाणं / णवरं संठाणे इमो विसेसो दृढम्वोप्राउकाइयाणं थिबुबिदुसंठाणसंठिए पण्णते, तेउकाइयाणं सूईकलावसंठाणसंठिए पण्णत्ते, बाउक्काइयाणं पडागासंठाणसंठिए पण्णत्ते, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [986] पृथ्वीकायिकों (के स्पर्शनेन्द्रिय संस्थान के बाहल्य आदि) की (सू. 985-1 से 9 तक में उल्लिखित) वक्तव्यता के समान अप्कायिकों से लेकर (तेजस्कायिक, वायुकायिक और) यावत् वनस्पतिकायिकों तक (के स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी संस्थान, बाहय आदि) की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए; किन्तु इनके संस्थान के विषय में यह विशेषता समझ लेनी चाहिए—अप्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय (जल) विन्दु के आकार की कही है, तेजस्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय सूचीकलाप (सूइयों के ढेर) के आकार की कही है, वायुकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय पताका के आकार की कही है तथा वनस्पतिकायिकों को स्पर्शनेन्द्रिय का प्राकार नाना प्रकार का कहा गया है। 18. [1] बेइंदियाणं भंते ! कति इंदिया पण्णत्ता। गोयमा ! दो इंदिया पण्णत्ता। तं जहा-जिभिदिए य फासिदिए य / दोण्हं पि इंदियाणं संठाणं बाहल्लं पोहत्तं पदेसा प्रोगाहणा य जहा प्रोहियाणं भणिया (सु. 974-678) तहा भाणियब्वा / णवरं फासेंदिए हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते ति इमो विसेसो। [987-1 प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [987-1 उ.] गौतम ! दो इन्द्रियाँ कही गई हैं, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय / दोनों इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश और अवगाहना के विषय में जैसे (सू. 974 से 678 तक में) समुच्चय के संस्थानादि के विषय में कहा है, वैसा कहना चाहिए / विशेषता यह है कि (इनकी) स्पर्शनेन्द्रिय हुण्डकसंस्थान वाली होती है। [2] एतेसि गं भंते ! बेइंदियाणं जिभिदिय-फासेंदियाणं प्रोगाहणटुयाए पएसट्टयाए प्रोगाहणपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा 4 ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org