________________ 158 [ प्रज्ञापनासूत्र [5] एवं जाव चरिदिय ति / णवरं इंदियपरिवुड्डो कायन्वा / तेइंदियाणं घाणेदिए थोवे, चरिदियाणं चक्खिदिए थोवे / सेसं तं चेव / [987-5] इसी प्रकार (द्वीन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना और अल्पबहुत्व के समान) यावत् चतुरिन्द्रिय (त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय के संस्थानादि के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि (उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की परिवृद्धि करनी चाहिए / त्रीन्द्रिय जीवों की घ्राणेन्द्रिय थोड़ी होती है, (इसी प्रकार) चतुरिन्द्रिय जीवों को चक्षुरिन्द्रिय थोड़ी होती है। शेष (सब वक्तव्यता) उसी तरह (पूर्ववत् द्वीन्द्रियों के समान) ही है। 68. पचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा णेरइयाणं (सु. 183) / णवरं फासिदिए छविहसंठाणसंठिए पण्णत्ते / तं जहा-समचउरंसे 1 गग्गोहपरिमंडले 2 सातो 3 खुज्जे 4 वामणे 5 188] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों की इन्द्रियों की संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता (सूत्र 983 में अंकित) नारकों की इन्द्रिय-संस्थानादि-सम्बन्धी वक्तव्यता के समान समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि उनकी स्पर्शनेन्द्रिय छह प्रकार के संस्थानों वाली होती है / वे (छह संस्थान) इस प्रकार हैं- (1) समचतुरस्र, (2) न्यग्रोधपरिमण्डल, (3) सादि, (4) कुब्जक, (5) वामन और (6) हुण्डक ! 686. वाणमंतर-जोइसिय-माणियाणं जहा असुरकुमाराणं (सु. 984) / [989] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. 184 में अंकित) असुरकुमारों को (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान (कहना चाहिए)। विवेचन-चौवीस दंडकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा-नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना एवं अल्पबहुत्व के सम्बन्ध में सात सूत्रों (सू. 683 से 186 तक) में प्ररूपणा की गई है। नरयिकों और असुरकुमारादि भवनवासियों को स्पर्शनेन्द्रिय के विशिष्ट संस्थान-नैरयिकों के शरीर (वैक्रियशरीर) दो प्रकार के होते हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / भवधारणीय शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) उन्हें भवस्वभाव से मिलता है, जो कि अत्यन्त बीभत्स संस्थान (हुण्डक आकार) वाला होता है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर भी हण्डकसंस्थान वाला ही होता है। क्योंकि वे चाहते तो हैं शुभ-सुखद शरीर की विक्रिया करना, किन्तु उनके अतीव अशुभ तथाविध नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभतर वैक्रियशरीर बनता है। _असुरकूमारादि भवनवासियों के भी दो प्रकार के शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) होते हैं-भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय / उनका भवधारणीय शरीर तो समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है, जो कि भव के प्रारम्भ से अन्त तक रहता है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर नाना संस्थान (आकार) वाला होता है, क्योंकि उत्तरवैक्रिय शरीर की मनचाही रचना वे स्वेच्छा से कर लेते हैं।' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 297-298 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org