________________ 162] [प्रज्ञापमासूत्र विवेचन-नौवां विषय (-परिमाण) द्वार–प्रस्तुत सूत्र (992) में क्रमशः बताया गया है कि कितनी दूर से पांचों इन्द्रियों में अपने-अपने विषय को ग्रहण करने की जघन्य और उत्कृष्ट क्षमता है ? इन्द्रियों की विषय-ग्रहणक्षमता--(१) श्रोत्रेन्द्रिय जघन्यतः आत्मांगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए हुए शब्दों को सुन सकती है और उत्कृष्ट 12 योजन दूर से आए हुए शब्दों को सुनती है, बशर्ते कि वे शब्द अच्छिन्न अर्थात्-अव्यवहित हों, उनका तांता टूटना या बिखरना नहीं चाहिए / दूसरे शब्दों या वायु आदि से उनकी शक्ति प्रतिहत न हो गई हो, साथ ही वे शब्द-पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिए, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर सकते / इसके अतिरिक्त वे शब्द निवृत्तीन्द्रिय में प्रविष्ट भी होने चाहिए / इससे अधिक दूरी से आए हुए शब्दों का परिणमन मन्द हो जाता है, इसलिए वे श्रवण करने योग्य नहीं रह जाते / (2) चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित रूप को तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन दूरी पर स्थित रूप को देख सकती है / किन्तु वह रूप अच्छिन्न (दीवाल आदि के व्यवधान से रहित), अस्पृष्ट और अप्रविष्ट पुद्गलों को देख सकती है। इससे आगे के रूप को देखने की शक्ति नेत्र में नहीं है, चाहे व्यवधान न भी हो। निष्कर्ष यह है कि श्रोत्र आदि चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग दूर के शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श को ग्रहण कर सकती हैं, जबकि चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित अव्यवहित रूपी द्रव्य को देखती है, इससे अधिक निकटवर्तीरूप को वह नहीं जान सकती, क्योंकि अत्यन्त सन्निकृष्ट अंजन, रज, मस आदि को भी नहीं देख पाती / शेष सभी इन्द्रियों के द्वारा विषयग्रहण की क्षमता का प्रतिपादन स्पष्ट ही है।' दसवाँ अनगार-द्वार-- 693. अणगारस्स णं भंते ! भाविप्रप्पणो मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! 2 सव्वलोग पिय णं ते प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! अणगारस्स णं भाविनप्पणो मारणंतियसमग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सवलोगं पि य गं ते प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति / [963 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या वे सर्वलोक को अवगाहन करके रहते हैं ? [993 उ.] हाँ, गौतम ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 299 से 302 तक (ख) वारसहिंतो सोत्तं, सेसाण नवहि जोयणे हितो। गिण्हंति पत्तमत्थं एत्तो परतो न गिण्हति / / -विशेषा. भाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org