________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [ 169 1001. थूणा णं भंते ! उड्ढं ऊसिया समाणी जावतियं खेत्तं प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति तिरियं पि य णं प्रायया समाणी तावतियं चेव खेत्तं प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! थूणा णं उड्ढे ऊसिया तं चेव जाव चिट्टति / [1001 प्र.] भगवन् ! स्थूणा (ठूठ, बल्ली या खम्भा) ऊपर उठी हुई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हुई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ? [1001 उ.] हाँ, गौतम ! स्थूणा ऊपर (ऊँची) उठी हुई जितने क्षेत्र को," (इत्यादि उसी पाठ को यावत् (उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके) रहती है, (कहना चाहिए।) विवेचन-उन्नीसवां-बीसौं कम्बलद्वार-स्थणाद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः कम्बल और स्थूणा को लेकर प्राकाशप्रदेशस्पर्शन और क्षेत्रावगाहन की चर्चा की गई है। प्रतीन्द्रिय वस्तुग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर--प्रस्तुत दोनों द्वारों में अतीन्द्रिय वस्तुओं के ग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं / उनका प्राशय क्रमशः इस प्रकार है-(१) कम्बल को तह पर तह करके लपेट दिये जाने पर वह जितने आकाशप्रदेशों को घेरता है, क्या उसे फैला दिये जाने पर वह उतने ही आकाशप्रदेशों को घेरता है ? भगवान् का उत्तर हाँ में है। (2) स्थूणा (थून) ऊँची खड़ी की हुई, जितने क्षेत्र को अवगाहन कर (व्याप्त करके) रहती है, क्या वह तिरछी लम्बी पड़ी हुई भी उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती (व्याप्त करती) है ? इसका उत्तर भी भगवान् ने स्वीकृतिसूचक दिया है।' इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवा थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-प्रलोकद्वार 1002. प्रागासथिग्गले गं भंते ! किणा फुडे ? कहि या काहि फुरे ? कि धम्मस्थिकाएणं फुडे ? किं धम्मस्थिकायस्स देसेणं फुडे ? धम्मत्थिकायस्स पदेसेहि फुडे? एवं अधम्मस्थिकाएणं प्रागासस्थिकाएणं? एएणं भेवेणं जाव कि पुढविकाइएणं फुडे जाव तसकाएणं फुडे ? प्रद्धासमएणं गोयमा ! धम्मस्थिकारणं फुडे, णो धम्मत्मिकायस्स देसेणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स पदेसेहि फुडे / एवं अधम्मस्थिकारणं वि। णो प्रागासस्थिकाएणं फुडे, प्रागासस्थिकायस्स देसेणं फुडे, प्रागासस्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे जाव वणफइकाइएणं फुडे / तसकाएणं सिय फुडे, सिय णो फुडे / प्रद्धासमएणं देसे फुडे, देसे णो फुडे / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 306 (ख) यही मन्तव्य नेत्रपट को लेकर अन्यत्र भी कहा गया है 'जह खलु महापमाणो नेत्तपडो कोडिओ नहगंमि। तमि वि तावइए च्चिय फुसइ पएसे (विरल्लिए वि) // ' (अर्थात् - संकुचित किया हुप्रा नेत्रपट जितने आकाशप्रदेश में रहता है, विस्तत करने (फैलाने) पर भी वह (नेत्रपट) उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता है।) --प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 306 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org