________________ 1721 [ प्रज्ञापनासूत्र आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है; (किन्तु) पृथ्वीकाय से स्पष्ट नहीं है, यावत् प्रद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पष्ट नहीं है / अलोक एक अजीवद्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है, सर्वाकाश के अनन्तवें भाग कम है (लोकाकाश को छोड़कर सर्वाकाश प्रमाण है।) विवेचन-इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवा थिग्गल-द्वीपोदधिलोक-प्रलोकद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1002 से 1005 तक) में आकाशरूप थिग्गल, द्वीप-सागरादि, लोक और अलोक के धर्मास्तिकायादि से लेकर ग्रद्धा-समय तक से स्पृष्ट-अस्पृष्ट होने की प्ररूपणा की गई है। आकाशथिग्गल के स्पृष्ट-प्रस्पष्ट को समीक्षा-'थिग्गल' शब्द से यहां आकाशथिग्गल समझना चाहिए / सम्पूर्ण आकाश एक विस्तृत पट के समान है। उसके बीच में लोक उस विस्तृत पट के थिग्गल (पैबन्द) की तरह प्रतीत होता है / अतः लोकाकाश को थिग्गल कहा गया है / प्रथम सामान्य प्रश्न है—इस प्रकार का आकाशथिग्गलरूप लोकाकाश किससे स्पृष्ट अर्थात् व्याप्त है ? तत्पश्चात् विशेषरूप में प्रश्न किया गया है कि धर्मास्तिकाय से लेकर त्रसकाय तक, यहाँ तक कि 'अद्धा-समय' तक से कितने कायों से स्पष्ट है ? लोक सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय से स्पष्ट है, क्योंकि धर्मास्तिकाय पूरा का पूरा लोक में ही अवगाढ है, अतएव वह धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, क्योंकि जो जिसमें पूरी तरह व्याप्त है, उसे उसके एक देश में व्याप्त नहीं कहा जा सकता किन्तु लोक धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से व्याप्त तो है ही; क्योंकि धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेश लोक में ही अवगाढ हैं / यही बात अधर्मास्तिकाय के विषय में समझनी चाहिए; किन्तु लोक सम्पूर्ण प्राकाशास्तिकाय से स्पष्ट नहीं है, क्योंकि लोक सम्पूर्ण आकाशास्तिकाय का एक छोटा-सा खण्डमात्र ही है, किन्तु वह आकाशास्तिकाय के देश से और प्रदेशों से स्पष्ट है, यावत् पुद्गलास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से तथा पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है / सूक्ष्म पृथ्वीकायादि समग्र लोक में व्याप्त हैं / अतएव उनके द्वारा भी वह पूर्ण रूप से स्पृष्ट है, किन्तु त्रसकाय से क्वचित् स्पृष्ट होता है, क्वचित् स्पृष्ट नहीं भी होता / जब केवली, समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने प्रात्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं / केवली भगवान् सकाय के ही अन्तर्गत हैं, अतएव उस समय समस्त लोक त्रसकाय से स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त अन्य समय में सम्पूर्ण लोक त्रसकाय से स्पष्ट नहीं होता / क्योंकि सजीव सिर्फ त्रसनाडी में ही पाए जाते हैं। जो सिर्फ एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है / श्रद्धा-समय से लोक का कोई भाग स्पष्ट होता है और कोई भाग स्पष्ट नहीं होता / प्रद्धा-काल अढ़ाई द्वीप में ही है, आगे नहीं। ___ 'पाकाशथिग्गल' और 'लोक' में अन्तर–पहले लोक को 'आकाशथिग्गल' शब्द से प्ररूपित किया था, अब इसी को सामान्यरूप से 'लोक' शब्द द्वारा प्रतिपादित किया गया है / इसलिए विशेष और सामान्य का अन्तर है / 'लोक' संबंधी निरूपण 'आकाशथिग्गल' के समान ही है / ' // पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 307-305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org