________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 177 विवेचना-चतुर्थ-पंचम-षष्ठ लन्धिद्वार, उपयोगाद्धाद्वार एवं अल्पबहुत्वद्वार-प्रस्तुत तोन सूत्रों में क्रमश: लब्धिद्वार, उपयोगाद्धाद्वार एवं उपयोगाद्धाविशेषाधिकद्वार के माध्यम से इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम की, इन्द्रियों के उपयोगकाल की एवं इन्द्रियों के उपयोगकाल के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। इन्द्रियलब्धि प्रादि पदों के अर्थ-इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम को इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियों के उपयोग (उपयोग से युक्त व्यापृत रहने) के काल को इन्द्रिय उपयोगाद्धा एवं उपयोगाद्धा के अल्पबहुत्व या विशेषाधिक को उपयोगाद्धाविशेषाधिक कहते हैं।' सातवाँ, पाठवाँ, नौवाँ और दसवाँ क्रमशः इन्द्रिय-अवग्रहरण-अवाय-ईहा-अवग्रह द्वार 1014. [1] कति बिहा गं भंते ! इंदियनोगाहणा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा इंदियरोगाहणा पण्णत्ता। तं जहा-सोइंदियोगाहणा जाव फासेंदियप्रोगाहणा। [1014-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-अवग्रहण, (अवग्रह) कितने प्रकार का कहा गया है ? [1014-1 उ.] गौतम ! पांच प्रकार के इन्द्रियावग्रहण कहे हैं / वे इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रियअवग्रहण यावत् स्पर्शन्द्रिय-अवग्रहण / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / णवरं जस्स जइ इंदिया अत्यि / 7 // [1014-2] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक (पूर्ववत् कहना चाहिए)। विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, (उसके उतने ही अवग्रहण समझने चाहिये / ) 7 / 1015. [1] कतिविहे णं भंते ! इंदियप्रवाए पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे इंदियप्रयाये पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियप्रवाए जाव फासेंदियअवाए। [1015-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-अवाय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1015-1 उ.] गौतम ! इन्द्रिय-अवाय पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रिय अवाय (से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय-अवाय / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / नवरं जस्स जत्तिया इंदिया अस्थि / 8 // _[1015-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (अवाय के विषय में कहना चाहिए)। विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने ही अवाय कहने चाहिए।) / / 8 / / 1016. [1] कतिविहा णं भंते ! ईहा पण्णता ? गोयमा ! पंचविहा ईहा पण्णता / तं जहा–सोइंदियईहा जाव फासें दियईहा। [1016-1 प्र.] भगवन् ! ईहा कितने प्रकार की कही गई है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 309 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org