________________ 198] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! णस्थि / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि दो वा चत्तारि वा छ वा संखेज्जा वा प्रसंखेज्जा वा अणंता वा। एवं तेइंदियत्ते वि, वरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। एवं चरिदियत्ते वि नवरं पुरेक्खडा छ वा बारस वा प्रहारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [1041-4 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक को द्वीन्द्रियपन में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [1041-4 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (भगवन् ! वैसी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी दो, चार, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) श्रीन्द्रियपन में (अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए।) विशेष यह है कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ चार, पाठ या बारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) चतुरिन्द्रियपन में (अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों) के विषय में जानना चाहिए। विशेष यह है कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ छह, बारह, अठारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। [5] पंचेंदियतिरिक्खजोगियत्ते जहा असुरकुमारत्ते। [1041-5] (एक-एक नैरयिक की) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में असुरकुमारपर्याय में जिस प्रकार कहा गया था, उसी प्रकार कहना चाहिए। [6] मणूसत्ते वि एवं चेव / णवरं केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। सन्वेसि मणूसवज्जाणं पुरेक्खडा मणूसत्ते कस्सइ अस्थि कस्सइ णथि त्ति एवं ग वुच्चति / [1041-6] मनुष्यपर्याय में भी इसी प्रकार अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / [प्र.] विशेष यह है कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं / मनुष्यों को छोड़ कर शेष सबकी (तेईस दण्डकों के जीवों की) पुरस्कृत (भावी) द्रव्येन्द्रियाँ मनुष्यपन में किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, ऐसा नहीं कहना चाहिए। [7] वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मग जाव गेवेज्जगदेवत्ते प्रतीया अणंता; बद्ध लगा स्थि; पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org