________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 195 विशेष यह है कि (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव को) मनुष्यस्वरूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। [प्र.] बद्ध (व्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं / [प्र.] पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (बे) पाठ हैं। [3] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते प्रतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ परिय, जस्सास्थि अट। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [1047-3] (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्वरूप में, अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) किसी को हैं और किसो को नहीं हैं / जिसको होती हैं, वे आठ होती हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] कितनी पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) हैं ? [उ.) गौतम नहीं हैं। [4] एगमेगस्स णं भंए ! सम्वसिद्धगदेवस्स सम्वसिद्धगदेवत्ते केवतिया दबिदिया अतीया ? गोयमा ! पत्थि। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा ! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। {1047-4 प्र.] भगवन् ! एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव को सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ किकनी हैं ? [1047-4 उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं। [प्र.] उसको पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। 1048. [1] रइयाणं भंते ! णेरइयत्ते केवइया दधिदिया प्रतीया ? गोयमा ! अणता। केवतिया बद्धलगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org