________________ 194 ] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! स्थि। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा ! पत्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट / [1046-8 प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1046-8 उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं / [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती / जिसकी होती हैं, वे आठ होती हैं / 1047. [1] एगमेगस्स णं भंते ! सव्वसिद्धगदेवस्स गैरइयत्ते केवतिया दविदिया प्रतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [1047-1 प्र.] भगवान् ! एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की नारकपन में कितनी द्रव्येन्द्रियाँ प्रतीत हैं ? [1047-1 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] कितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [2] एवं मणूसवज्जं जाव गेवेज्जगदेवत्ते / णवरं मणूसत्ते अतीया अणंता / केवतिया बद्ध ल्लगा? गोयमा ! गस्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! अट्ठ। [1047-2] इसी प्रकार (असुरकुमारत्व से लेकर) मनुष्यत्व को छोड़कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व रूप में (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) (अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता समझनी चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org