________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रिपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 197 (1048-4 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवस्व के रूप के अतीत द्रव्येन्द्रियां कितनी हैं ? [1048-4 उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) असंख्यात हैं। [5] एवं सवसिद्धगदेवत्ते वि / [1048-5] (नैरयिकों की) सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (जाननी चाहिए।) 1046, एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सव्वदसिद्धगदेवत्ते भाणियव्वं / वरं वणप्फतिकाइयाणं विजय-बेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते सव्वदसिद्धगदेवत्ते य पुरेक्खडा अणंता; सन्वेसि मणूस-सम्वसिद्धगवज्जाणं सटाणे बद्धलगा असंखेज्जा, परहाणे बदल्लगा णत्थि घणस्सतिकाइयाणं सटाणे बद्ध ल्लगा अणंता। [1049] (असुरकुमारों से लेकर) यावत् (बहुत-से) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की यावत् (नरयिकत्व से लेकर) सर्वार्थसिद्ध देवत्वरूप (तक) में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की) प्ररूपणा इसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व तथा सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। मनुष्यों और सर्वार्थसिद्धदेवों को छोड़कर की स्वस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं, परस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं। वनस्पतिकायिकों की स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। 1050. [1] मणुस्साणं णेरइयत्ते प्रतीता अणंता, बद्ध ल्लगा णस्थि, पुरेक्खडा अणंता / [1050-1] मनुष्यों की नै रयिकत्व के रूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं / [2] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते। णवरं सट्ठाणे प्रतीता अणंता, बद्धलगा सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, पुरेक्खडा अणंता / [1050-2] मनुष्यों की (असुरकुमारत्व से लेकर) यावत् अवेयकदेवत्वरूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा) इसी प्रकार (पूर्ववत्) (समझनी चाहिए।) विशेष यह है कि (मनुष्यों की) स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। [3] मणूसाणं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते केवतिया दधिदिया अतीता ? संखेज्जा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org