________________ पन्द्रहवां इन्द्रिययद : द्वितीय उद्देशक] [189 [1041-7] (एक-एक नैरयिक की) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म से लेकर ग्रैवेयक देव तक के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं और पुरस्कृत इन्द्रियाँ किसी की हैं, किसी की नहीं हैं। जिसकी हैं, उसकी पाठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। [8] एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेबत्ते केवतिया दधिदिया प्रतीया? गोयमा! णस्थि / केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! पत्थि।। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि प्रढ वा सोलस वा। [1041-8 प्र.] भगवन् ! एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [1041-8 उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.) भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं। [6] सव्वदृसिद्धगदेवत्ते अतीया पत्थि; बद्धलगा णत्थि; पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ त्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ। [1041-9] सर्वार्थसिद्ध देवपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियां भी नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं। 1042. एवं जहा रइयदंडओ णीग्रो तहा असुरकुमारेण वि णेयन्वो जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएणं / णवरं जस्स सट्टाणे जति बद्धल्लगा तस्स तइ भाणियव्वा / [1042] जैसे (सू. 1041-1 से 9 में) नैरयिक (की नैरयिकादि विविधरूप में पाई जाने वाली अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों) के विषय में दण्डक कहा, उसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक के दण्डक कहने चाहिए ! विशेष यह है कि जिसकी स्वस्थान में जितनी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कहीं, उसकी उतनी कहनी चाहिए। 1043. [1] एगमेगस्स णं भंते ! मणसस्स रइयत्ते केवतिया दन्वेंदिया प्रतीया ? गोयमा! अणंता। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउबीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org