________________ 190 [ प्रज्ञापनासूत्र [1043-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की नैरयिकपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1043-1 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [प्र.) (भगवन् ! उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (भगवन् ! उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी पाठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं / [2] एवं जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियत्ते। णवरं एगिदिय-विलिदिएसु जस्स जत्तिया पुरेक्खडा तस्स तत्तिया भाणियन्वा / [1043-2] इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में से जिसकी जितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहनी चाहिए। [3] एगमेगस्स णं भंते ! मणसस्स मणसत्ते केवतिया दविदिया प्रतीया ? गोयमा ! प्रणंता। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! प्रद्र। केवतिया पुरेक्खडा? कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणेता वा / [1043-3 प्र.] भगवन् ! मनुष्य को मनुष्यपर्याय में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1043-3 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र. बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं? [उ.] गौतम ! (वे) पाठ हैं। [प्र] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? [उ.] गौतम (वे) किसी को होती हैं, किसी को नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। [4] वाणमंतर-जोतिसिय जाव गेवेज्जगदेवत्ते जहा णेरइयत्ते। [1043-4] (एक-एक मनुष्य को) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और (सौधर्म से लेकर) यावत् प्रैवेयक देवत्व के रूप में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) नैरयिकत्व रूप में उक्त (सू. 1043-1 में उल्लिखित) अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के समान समझना चाहिए / [5] एगमेगस्स णं भंते ! मणसस्स विजय-वेजयंत-जयंताऽपराजियदेवते केवइया दग्विदिया अतीया ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि प्रढ वा सोलस वा। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! गस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org