Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 180] [प्रशापनासूत्र 1023. सेसाणं जहा णेरइयाणं (सु. 1020 [1]) जाव वेमाणियाणं / 10 // [1023] शेष समस्त जीवों के यावत् वैमानिकों तक के प्रवग्रह के विषय में जैसे (सू. 1020-1 में) नैरयिकों के अवग्रह के विषय में कहा है, वैसे ही समझ लेना चाहिए // 10 // विवेचन-सातवां, प्राठवां, नौवाँ और दसवां इन्द्रिय-प्रवग्रहण-प्रवाय-ईहा-प्रवग्रहद्वारप्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 1014 से 1023 तक) में चार द्वारों के माध्यम से क्रमश: इन्द्रियों के अवग्रहण, अवाय, ईहा और अवग्रह के विषय में कहा गया है / इन्द्रियावग्रहण का अर्थ-इन्द्रियों द्वारा होने वाले सामान्य परिच्छेद (ज्ञान) को इन्द्रियावग्रह या इन्द्रियावग्रहण कहते हैं / इन्द्रियावाय की व्याख्या-अवग्रहज्ञान से गृहीत और ईहाज्ञान से ईहित अर्थ का निर्णयरूप जो अध्यवसाय होत य होता है, वह अवाय या 'अपाय' कहलाता है। जैसे-यह शंख का ही शब्द है, अथवा यह सारंगी का ही स्वर है, इत्यादि रूप अवधारणात्मक (निश्चयात्मक) निर्णय होना / तात्पर्य यह है कि ज्ञानोपयोग में सर्वप्रथम अवग्रहज्ञान होता है; जो अपर सामान्य को विषय करता है / तत्पश्चात् ईहाज्ञान की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा ज्ञानोपयोग सामान्यधर्म से प्रागे बढ़कर विशेषधर्म को ग्रहण करने के लिए अभिमुख होता है / ईहा के पश्चात् अवायज्ञान होता है, जो वस्तु के विशेषधर्म का निश्चय करता है / अवग्रहादि ज्ञान मन से भी होते हैं और इन्द्रियों से भी, किन्तु यहाँ इन्द्रियों से होने वाले प्रवग्रहादि के सम्बन्ध में ही प्रश्न और उत्तर हैं / ईहाज्ञान की व्याख्या-सद्भूत पदार्थ की पर्यालोचनरूप चेष्टा ईहा कहलाता है। ईहाज्ञान अवग्रह के पश्चात् और अवाय से पूर्व होता है। यह (ईहाज्ञान) पदार्थ के सद्भूत धर्मविशेष को ग्रहण करने और असद्भूत अर्थविशेष को त्यागने के अभिमुख होता है। जैसे—यहाँ मधुरता आदि शंखादिशब्द के धर्म उपलब्ध हो रहे हैं, सारंग आदि के कर्कशता-निष्ठुरता आदि शब्द के धर्म नहीं, अतएव यह शब्द शंख का होना चाहिए / इस प्रकार की मतिविशेष ईहा कहलाती है / प्रावग्रह और व्यंजनावग्रह--अर्थ का अवग्रह अर्थावग्रह कहलाता है। अर्थात--शब्द द्वारा नहीं कहे जा सकने योग्य अर्थ के सामान्यधर्म को ग्रहण करना प्रावग्रह है। कहा में --रूपादि विशेष से रहित अनिर्देश्य सामान्यरूप अर्थ का ग्रहण, अर्थावग्रह है। जैसे तिनके का स्पर्श होते ही सर्वप्रथम होने वाला--'यह कुछ है', इस प्रकार का ज्ञान / दीपक के द्वारा जैसे घट व्यक्त किया जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाए, उसे व्यंजन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय और शब्दादिरूप में परिणत द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध होने पर ही श्रोत्रन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ शब्दादिविषयों को व्यक्त करने में समर्थ होती हैं, अन्यथा नहीं। अतः इन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। यों व्यंजनावग्रह का निर्वचन तीन प्रकार से होता है-उपकरणेन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। उपकरणेन्द्रिय भी व्यंजन कहलाती है और व्यक्त होने योग्य शब्दादि विषय भी व्यंजन कहलाते हैं / तात्पर्य यह है कि दर्शनोपयोग के पश्चात् अत्यन्त अव्यक्तरूप परिच्छेद (ज्ञान) व्यञ्जनावग्रह है। पहले कहा जा चुका है कि उपकरण द्रव्येन्द्रिय और शब्दादि के रूप में परिणत द्रव्यों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है, इस दष्टि से चार प्राप्यकारी इन्द्रियाँ ही ऐसी हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org