________________ 184] [प्रज्ञापनासूत्र [1032-1] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक (की अतीत और पुरस्कृत इन्द्रियों के विषय में) भी इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) [प्र. उ.] विशेषतः इनको (प्रत्येक को) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ऐसी पृच्छा का उत्तर है(इनकी बद्ध द्रव्येन्द्रिय) एक (मात्र) स्पर्शनेन्द्रिय कही गई है / [2] एवं तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि / णवरं पुरेक्खडा णव वा दस वा / [1032-2] तेजस्कायिक और वायुकायिक की अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) कहना चाहिए / विशेष यह है कि इनकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नौ या दस होती हैं। 1033. [1] एवं बेइंदियाण वि / णवरं बद्धल्लगपुच्छाए दोणि / [1033-1] द्वीन्द्रियों की (प्रत्येक की अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) भी इसी प्रकार पूर्ववत् कहना चाहिए / विशेष यह है कि (इनकी प्रत्येक की) बद्ध (द्रव्येन्द्रियों) की पृच्छा होने पर दो द्रव्येन्द्रियाँ (कहनी चाहिए।) [2] एवं तेइंदियस्स वि / णवरं बद्धलगा चत्तारि / [1033-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय की (अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ चार होती हैं / [3] एवं चउरिदियस्स वि / नवरं बद्धलगा छ / [1033-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय की (अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) भी (जानना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ छह होती हैं। 1034. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणस-वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाणगदेवस्स जहा असुरकुमारस्स (सु. 1031) / णवरं मणसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ स्थि, जस्सऽस्थि प्र? वा नव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / [1034] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में (सू. 1031 में) जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में (कहा है, उसी प्रकार समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी मनुष्य के होती हैं, किसी के नहीं होती। जिसके (पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) होती हैं, उसके आठ, नो, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं / 1035. सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणय-प्रारण-अच्चुय-गेवेज्जगदेवस्स य जहा नेरइयस्स (सु. 1030) / [1035] सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, आरण, अच्युत और ग्रेवेयक देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में (सू. 1030 में उक्त) नैरयिक के (अतीतादि के) समान जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org