________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक [ 171 कुरु-मंदर-प्रावासा कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य / देवे णागे जक्खे भूए य सयंभुरमणे य // 206 // एवं जहा बाहिरपुक्खरद्ध भणितं तहा जाव सयंभुरमणे समुद्दे जाव प्रद्धासमएणं णो फुडे / [1003-2] इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोद समुद्र, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और बाह्य पुष्करार्द्ध (द्वीप) के विषय में इसी प्रकार की (पूर्वोक्तानुसार धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक की अपेक्षा से स्पृष्ट-अस्पृष्ट की प्ररूपणा करनी चाहिए।) विशेष यह है कि बाह्य पुष्कराध से लेकर आगे के समुद्र एवं द्वीप अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं हैं। यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र तक इसी प्रकार (की प्ररूपणा करनी चाहिए।) यह परिपाटी (द्वीप-समुद्रों का क्रम) इन गाथाओं के अनुसार जान लेनी चाहिए / यथा [गाथार्थ-] 1. जम्बूद्वीप, 2. लवणसमुद्र, 3. धातकीखण्डद्वीप, 4. पुष्करद्वीप, 5. वरुगद्वीप, 6. क्षीरवर, 7. घृतवर, 8. क्षोद (इक्षु), 9. नन्दीश्वर, 10. अरुणवर, 11. कुण्डलवर, 12. रुचक, 13. अाभरण, 14. वस्त्र, 15. गन्ध, 16. उत्पल, 17. तिलक, 18. पृथ्वी, 16. निधि, 20. रत्न, 21. वर्षधर, 22. द्रह, 23. नदियाँ, 24. विजय, 25. वक्षस्कार, 26. कल्प, 27. इन्द्र, 26. कुरु, 26. मन्दर, 30. आवास, 31. कूट, 32. नक्षत्र, 33. चन्द्र, 34. सूर्य, 35. देव, 36. नाग, 37. यक्ष, 38. भूत और 36. स्वयम्भूरमण समुद्र // 204, 205, 206 // इस प्रकार जैसे (धर्मास्तिकायादि से लेकर प्रद्धा-समय तक की अपेक्षा से) बाह्यपुष्करार्द्ध के (स्पष्टास्पष्ट के) विषय में कहा गया उसी प्रकार (वरुणद्वीप से लेकर) यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र (तक) के विषय में 'श्रद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं होता,' यहाँ तक (कहना चाहिए।) 1004. लोगे णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहि वा काहि ? जहा अागासथिग्गले (सु. 1002) / [1004 प्र. उ.] भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है (इत्यादि समस्त वक्तव्यता जिस प्रकार (सू. 1002 में) प्राकाश-थिग्गल के विषय में कही गई है, (उसी प्रकार कहनी चाहिए।) 1005. प्रलोए णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं वा काएहि पुच्छा। गोयमा ! णो धम्मस्थिकाएणं फुडे जाव णो प्रागासस्थिकाएणं फुडे, पागासस्थिकायस्स देसेणं फुडे अागासस्थिकायस्स पदेसेहि फुडे, णो पुढविक्काइएणं फुडे जाव णो श्रद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए प्रणंतेहिं प्रगुरुलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे। // इंदियपयस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥ / [1005 प्र.] भगवन् ! अलोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है ? इत्यादि सर्व पृच्छा यहाँ पूर्ववत् करनी चाहिए। [1005 उ.] गौतम ! अलोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, (अधर्मास्तिकाय से लेकर) यावत् (समग्र) आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है; (वह) आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org