Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 1741 [प्रज्ञापनासूत्र 1008. [1] रइयाणं भंते ! कतिविहे इंदिनोवचए पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे इंदिनोवचए पण्णते। तं जहा-सोइंदिनोवचए जाव फासिदिनोवचए / [1008-1 प्र.) भगवन् ! नैरयिकों के इन्द्रियोपचय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1008-1 उ.] गौतम ! (उनके) इन्द्रियोपचय पांच प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रियोपचय (से लेकर) यावत् स्पर्शनेन्द्रियोपचय / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / जस्स जइ इंदिया तस्स तइविहो चेव इंदिग्रोवचयो भाणियन्वो / 1 // (1008-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिकों के इन्द्रियोपचय के विषय में कहना चाहिए। जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, उसके उतने ही प्रकार का इन्द्रियोपचय कहना चाहिए / / 1 / / विवेचन--प्रथम इन्द्रियोपचयद्वार-प्रस्तुत सूत्रद्वय (1007-1008) में पांच प्रकार के इन्द्रियोपचय का तथा चौवीस दण्डकों में पाए जाने वाले इन्द्रियोपचय का कथन किया गया है। इन्द्रियोपचय अर्थात्-इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का संग्रह / ' द्वितीय-तृतीय निर्वर्तना द्वार 1006. [1] कतिविहा गं भंते ! इंदियनिव्वतणा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा इंदियनिव्वत्तगा पण्णत्ता / तं जहा–सोइंदियनिव्वत्तणा जाव फासिदियनिव्वत्तणा। [1009-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-निर्वर्तना (निर्वृत्ति) कितने प्रकार की कही गई है ? [1006-1 उ.] गौतम ! इन्द्रिय-निर्वर्तना पांच प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रिय-निवर्त्तना यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-निर्वर्तना / [2] एवं नेरइयाणं जाय वेमाणियाणं / नवरं जस्स जतिदिया अस्थि / 2 // [1009-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक निर्वर्तना-विषयक प्ररूपणा करनी चाहिए / विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, (उसकी उतनी ही इन्द्रिय-निर्वतना कहनी चाहिए / ) // 2 // 1010. [1] सोइंदियणिवत्तणा णं भंते ! कतिसमइया पन्नता ? गोयमा ! असंखिज्जसमइया अंतोमुहुत्तिया पन्नत्ता / एवं जाव फासिदियनिश्वत्तणा। [1010-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियनिर्वर्तना कितने समय की कही गई है ? [1010-1 उ.] गौतम ! (वह) असंख्यात समयों के अन्तर्मुहूर्त की कही है। इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय निर्वर्तना काल तक कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 309 (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 249 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org