________________ 170] [प्रज्ञापनासूत्र [1002 प्र.] भगवन् ! आकाश-थिग्गल (अर्थात्-लोक) किस से स्पष्ट है ?, कितने कायों से स्पष्ट है ?, क्या (वह) धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, या धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है, अथवा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है ? इसी प्रकार (क्या वह) अधर्मास्तिकाय से (तथा अधर्मास्तिकाय के देश से. या प्रदेशों से) स्पष्ट है ? (अथवा वह) अाकाशास्तिकाय से, (या उसके देश, या प्रदेशों से) स्पृष्ट है ? इन्हीं भेदों के अनुसार (क्या वह पुद्गलास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से, तथा पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् (वनस्पतिकाय तथा) त्रसकाय से स्पष्ट है ? (अथवा क्या वह) अद्धासमय से स्पृष्ट है ? [1002 उ.] गौतम ! (वह आकाशथिग्गल = लोक धर्मास्तिकाय से स्पष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है; इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से भी (स्पृष्ट है, अधर्मास्तिकाय के देश से स्पष्ट नहीं, अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है 1) आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, आकाशास्तिकाय के देश से स्पष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है (तथा पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं है, अद्धा-समय (कालद्रव्य) से देश से स्पृष्ट है तथा देश से स्पृष्ट नहीं है। 1003. [1] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे किण्णा फुडे ? कतिहिं वा काएहि फुडे ? कि धम्मत्थिकाएणं जाव मागासस्थिकाएणं फुडे ? __ गोयमा ! पो धम्मस्थिकारणं फुडे धम्मस्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मस्थिकायस्स पएसेहि फुडे, एवं अधम्मस्थिकायस्स वि भागासस्थिकायस्स घि, पुढविकाइएणं फुडे जाव वणप्फइकाइएणं फुडे, तसकाएणं सिय फुडे सिय णो फुडे, प्रद्धासमएणं फुडे / [1003-1 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप किससे स्पृष्ट है ? या (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है ? क्या वह धर्मास्तिकाय से (लेकर पूर्वोक्तानुसार) यावत् आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है ? (पूर्वोक्त परिपाटी के अनुसार 'अद्धा-समय' तक के स्पर्श-सम्बन्धी सभी प्रश्न यहाँ समझने चाहिए।) [1003-1 उ.] गौतम ! (वह) धर्मास्तिकाय (समग्र) से स्पृष्ट नहीं है, किन्तु) धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है / इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है, पृथ्वीकाय से (लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है (तथा) त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है, कथंचित् स्पृष्ट नहीं है; अद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पृष्ट है। [2] एवं लवणसमुद्दे धायइसंडे दीवे कालोए समुद्दे अभितरपुक्खरद्ध / बाहिरपुक्ख रद्ध एवं चेव, णवरं प्रद्धासमएणं णो फुडे / एवं जाव सयंभुरमणे समुद्दे / एसा परिवाडी इमाहि गाहाहिं अणुगंतव्वा / तं जहा जंबुद्दीवे लवणे धायइ कालोय पुक्खरे वरुणे। खीर घत खोत नंदि य अरुणवरे कुडले रुयए // 204 // आमरण-वत्य-गंधे उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे / वासहर-दह-नदोश्रो विजया वक्खार-कप्पिदा // 20 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org