________________ 168] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं एतेणं प्रमिलावणं प्रसि मणि उडुपाणं तेल्लं फाणियं वसं / [REE-2] इसी प्रकार (दर्पण के सम्बन्ध में जो कथन किया गया है) उसी अभिलाप के अनुसार क्रमशः असि, मणि, उदपान (दुग्ध और पानी), तेल, फाणित (गुड़राब) और वसा (चर्बी) (के विषय में अभिलाप-कथन करना चाहिए।) विवेचनबारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (666) में प्रादर्श आदि की अपेक्षा से चक्षुरिन्द्रिय-विषयक सात अभिलापों की प्ररूपणा की गई है। दर्पण प्रादि का द्रष्टा क्या देखता है ? –दर्पण, तलवार, मणि, पानी, दूध, तेल, गुड़राब और (पिघली हई) वसा को देखता हुआ मनुष्य वास्तव में क्या देखता है ? यह प्रश्न है। शास्त्रकार कहते हैं-वह दर्पण आदि को तथा अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को देखता है, किन्तु आत्मा को अर्थात्--अपने शरीर को नहीं देखता, क्योंकि अपना शरीर तो अपने आप में स्थित रहता है, दर्पण में नहीं; फिर वह अपने शरीर को कैसे देख सकता है ? वह (द्रष्टा) जो प्रतिबिम्ब देखता है, वह छाया-पुद्गलात्मक होता है, क्योंकि सभी इन्द्रियगोचर स्थूल वस्तुएँ किरणों वाली तथा चय-अपचय धर्म वाली होती हैं। किरणें छाया-पुद्गलरूप हैं, सभी स्थूल वस्तुओं की छाया की प्रतीति प्रत्येक प्राणी को होती है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य के जो छायापरमाणु दर्पण में उपसंक्रान्त होकर स्वदेह के वर्ण और प्राकार के रूप में परिणत होते हैं, उनकी वहाँ उपलब्धि होती है, शरीर की नहीं / वे (छायापरमाणु) प्रतिबिम्ब शब्द से व्यवहृत होते हैं।' 'प्रहाई पेहति' और 'नो अद्दाइं पेहति' इस प्रकार यहाँ पाठभेद है। विभिन्न प्राचार्यों ने अपने-अपने स्वीकृत पाठों का समर्थन भी किया है। पाठान्तर के अनुसार अर्थ होता है-दर्पण को नहीं देखता / तत्त्व केवलिगम्य है। उन्नीसवाँ वीसवाँ कम्बलद्वार-स्थूणाद्वार 1000. कंबलसाडए गं भंते ! प्रावेढियपरिवेढिए समाणे जावतियं प्रोवासंतरं फुसित्ता गं चिट्ठति विरल्लिए वि य णं समाणे तावतियं चेव प्रोवासंतरं फुसित्ता णं चिति ? हंता गोयमा ! कंबलसाडए णं प्रावेढियपरिवेढिए समाणे जावतियं तं चेव / [1000 प्र. भगवन् ! कम्बलरूप शाटक (चादर या साड़ी) आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुश्रा (लपेटा हुआ, खूब लपेटा हुआ) जितने अवकाशान्तर (अाकाशप्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर (प्राकाश-प्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है ? / [1000 उ.] हाँ, गौतम ! कम्बलशाटक आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है, फैलाये जाने पर भी वह उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है। 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 305 (ख) असि देहमाणे मणूसे कि मसि बेहइ, अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ? इत्यादि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org