Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 166] [प्रज्ञापनासूत्र न याति न पासंति पाहारिति / तत्थ णं जे ते अमाइसम्मबिटिउववनगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहाअणंतरोववनगा य परंपरोववनगा य / तस्थ णं जे ते प्रणंतरोववण्णगा ते णं ण याणंति ण पासंति माहारेति / तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते दुविहा पण्णता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / तस्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं ण याणंति ण पासंति प्राहारेति / तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवउत्ता य अणुवउत्ताय / तत्य णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण याति // पासंति पाहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति प्राहारेति / से एणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति–प्रत्थेगइया ण जाणंति जाव अत्थेगइया० प्राहारेति / [998 प्र.] भगवन् ! क्या वैमानिक देव उन निर्जरापुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं, आहार अर्थात ग्रहण करते हैं ? [968 उ. गौतम ! जैसे मनुष्यों से सम्बन्धित वक्तव्यता (सू. 996 में) कही है, उसी प्रकार वैमानिकों की वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / उनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे (उन्हें) नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं। उनमें से जो अमायी-सम्यग्दष्टि-उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / उनमें से जो अनन्तरोपपन्नक (अनन्तर-उत्पन्न) हैं, वे नहीं जानते, . नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा--पर्याप्तक और अपर्याप्तक। उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं-उपयोग-युक्त और उपयोग-रहित / जो उपयोग-रहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग-युक्त हैं, वे जानते हैं, देखते है और आहार करते हैं / इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई नहीं जानते हैं यावत् कोई-कोई प्राहार करते हैं / विवेचन-ग्यारहवाँ प्राहारद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 665 से 998 तक) में चौवीस दण्डकों में निर्जरापुद्गलों के जानने, देखने और आहार करने से सम्बन्धित प्ररूपणा की गई है। प्रश्न और उत्तर का प्राशय-प्रस्तुत प्रश्न का आशय यह है कि पुद्गलों का स्वभाव नाना रूपों में परिणत होने का है, अतएव योग्य सामग्री मिलने पर निर्जरापुद्गल अाहार के रूप में भी परिणत हो सकते हैं। जब वे अाहाररूप में परिणत होते हैं तब नैरयिक उक्त निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए आहार (लोमाहार) करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं ? भगवान् के द्वारा प्रदत्त उत्तर का आशय भी इसी प्रकार का है-वे नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं, क्योंकि वे पुद्गल (परमाणु) अत्यन्त सूक्ष्म होने से चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर होते हैं और नैरयिक कार्मणशरीरपुद्गलों को जान सकने योग्य अवधिज्ञान से रहित होते हैं। इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर का आशय सर्वत्र समझना चाहिए।' 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 304 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org