________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [167 संज्ञोभूत-प्रसंजीभूत मनुष्य-जो संज्ञी हों, वे संज्ञीभूत और जो असंज्ञी हों वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं / यहाँ संज्ञी का अर्थ है-वे अवधिज्ञानी मनुष्य, जिनका अवधिज्ञान कार्मणपुद्गलों को जान सकता है। जो मनुष्य इस प्रकार के अवधिज्ञान से रहित हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों में जो संज्ञीभूत हैं, उनमें भी जो उपयोग लगाये हुए होते हैं, वे ही उन पुद्गलों को जानते-देखते हुए उनका प्रहार करते हैं, शेष असंज्ञीभूत तथा उपयोगशून्य संज्ञीभूत मनुष्य उन पुद्गलों को जान-देख नहीं पाते, केवल उनका आहार करते हैं। मायि-मिथ्याष्टि-उपपत्रक ओर प्रमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक-माया तृतीय कषाय है, उसके ग्रहण से उपलक्षण से अन्य सभो कषायों का ग्रहण कर लेना चाहिये। जिनमें मायाकषाय विद्यमान हो, उसे मायो अर्थात्-उत्कट राग-द्वेषयुक्त कहते हैं / मायो (सकषाय) होने के साथ-साथ जो मिथ्यादृष्टि हों वे मायी-मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। जो (वैमानिक देव) मायि-मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न (उपपन्न हए हों, वे मायि-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक कहलाते हैं। इनसे विपरीत जो हों वे अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं। सिद्धान्तानुसार मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नौवें ग्रेवेयक-पर्यन्त देवों में पाये जा सकते हैं / यद्यपि प्रैवेयकों में और उनसे पहले के कल्पों में सम्यग्दृष्टि देव होते हैं, किन्तु उनका अवधिज्ञान इतना उत्कट नहीं होता कि वे उन निर्जरापुद्गलों को जान-देख सकें / इसलिए वे भी मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नकों के अन्तर्गत ही कहे जाते हैं। जो अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अनुत्तरविमानवासी देव हैं / अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक-जिनको उत्पन्न हुए पहला ही समय हुआ हो, वे अनन्तरोपपन्नक देव कहलाते हैं और जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो चुका हो, उन्हें परम्परोपपन्नक कहते हैं। इन दोनों प्रकार के प्रमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देवों में से अनन्तरोपपन्नक देव तो निर्जरापुद्गलों को जान-देख नहीं सकते, केवल परम्परोपपन्नक और उनमें भी पर्याप्तक और पर्याप्तकों में भी उपयोगयुक्त देव ही निर्जरापुद्गलों को जान-देख सकते हैं। जो अपर्याप्तक और उपयोगरहित होते हैं, वे उन्हें जान-देख नहीं सकते, केवल उनका आहार करते हैं।' 'पाहार करते हैं' का अर्थ यहाँ सर्वत्र 'पाहार करते हैं' का अर्थ-लोमाहार करते हैं ऐसा समझना चाहिए / बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक को प्ररूपरणा __EEE. [1] अदाए णं भंते ! पेहमाणे मणूसे कि प्रदायं पेहेति ? अत्ताणं पेहेति ? पलिभार्ग पेहेति ? गोयमा ! प्रदायं पेहेति णो प्रत्ताणं पेहेति, पलिभागं पेहेति / [EE6-1 प्र.] भगवन् ! दर्पण देखता हा मनुष्य क्या दर्पण को देखता है ? अपने आपको (शरीर को) देखता है ? अथवा (अपने) प्रतिबिम्ब को देखता है ? __ [E66-1 उ.] गौतम ! (वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु (अपने शरीर का) प्रतिबिम्ब देखता है / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 304 / (ख) संखेज्ज कम्मदब्वे लोगे, योवूणगं पलियं, __ संभिन्नलोगनालि पासंति अणुत्तरा देवा। -प्रज्ञापना म. व, पत्रांक 304 में उद्धत 2. प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 304 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org