________________ 160 ] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन--सप्तम-अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 990-991) में यह प्रतिपादन किया गया है कि कौन-सो इन्द्रिय अपने स्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अस्पृष्ट विषय को ? तथा कौन-सी इन्द्रिय प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अप्रविष्ट विषय को? स्पृष्ट और अस्पष्ट की व्याख्या-जैसे शरीर पर रेत लग जाती है, उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो तो वह स्पृष्ट कहलाता है / जिस इन्द्रिय का अपने विषय के साथ स्पर्श नहीं होता, वह अस्पृष्ट विषय कहलाता है। जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श हुआ हो, वे शब्द (विषय) स्पृष्ट कहलाते हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श न हुआ हो, ऐसे रूप (विषय) अस्पृष्ट कहलाते हैं / ' का विशेष स्पष्टीकरण-प्रस्तूत समाधान से एक विशिष्ट अर्थ भी ध्वनित होता है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्टमात्र शब्दद्रव्यों को ही सुनती--ग्रहण कर लेती है। जैसे घ्राणेन्द्रियादि बद्ध और स्पृष्ट गन्धादि को ग्रहण करती है, वैसे श्रोत्रेन्द्रिय नहीं करती। इसका कारण यह है कि घ्राणेन्द्रियादि के विषयभूत द्रव्यों की अपेक्षा शब्द (भाषावर्गणा) के द्रव्य (पुद्गल) सूक्ष्म और बहुत होते हैं तथा शब्दद्रव्य उस-उस क्षेत्र में रहे हुए शब्द रूप में परिणमनयोग्य अन्य शब्दद्रव्यों को भी वासित कर लेते हैं / अतएव शब्दद्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते ही निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रवेश करके झटपट उपकरणेन्द्रिय (शब्द ग्रहण करने वाली शक्ति) को अभिव्यक्त करते हैं / इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय प्रादि की अपेक्षा श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में अधिक पटु है; इसलिए श्रोत्रेन्द्रिय स्पष्ट होने मात्र से ही शब्दों को ग्रहण कर लेती है, किन्तु अस्पष्ट---आत्मप्रदेशों के साथ सर्वथा सम्बन्ध को अप्राप्त-विषयों (शब्दों) को ग्रहण नहीं करती, क्योंकि प्राप्यकारी होने से उसका स्वभाव प्राप्त-स्पृष्ट विषय को ग्रहण करने का है / यद्यपि मूलपाठ में कहा गया है कि 'घ्रागेन्द्रिय स्पृष्ट गन्धों को सूघतो है. इत्यादि ; तथापि वह बद्ध-स्पृष्ट गन्धों को सूघती है, ऐसा समझना चाहिए / आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द को सुनती है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है तथा गन्ध, रस और स्पर्श को क्रमश: घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय (अपने-अपने) बद्धस्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है, ऐसा कहना चाहिए / स्पष्ट का अर्थ-प्रात्मप्रदेशों के साथ सम्पर्कप्राप्त है, जबकि बद्ध का अर्थ है-प्रात्मप्रदेशों के द्वारा प्रगाढ़ संबंध को प्राप्त / विषय, स्पृष्ट तो स्पर्शमात्र से ही हो जाते हैं किन्तु बद्ध-स्पृष्ट तभी होते हैं, जब वे प्रात्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं / गृहीत होने के लिए गन्धादि द्रव्यों का बद्ध और स्पृष्ट होना इसलिए आवश्यक है कि वे बादर हैं, अल्प हैं. वे अपने समकक्ष द्रव्यों को भावित नहीं करते तथा श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय प्रादि इन्द्रियाँ मन्दशक्ति वाली भी हैं / चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से अस्पष्ट रूपों को ग्रहण करती है। प्रविष्ट-अप्रविष्ट की व्याख्या-स्पृष्ट और प्रविष्ट में अन्तर यह है कि स्पर्श तो शरीर में रेत लगने की तरह होता है, किन्तु प्रवेश मुख में कौर (ग्रास) जाने की तरह है, इसलिए इन दोनों के 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 298 2. पुढे सुणे सद्द, रूवं पुण पासइ अपुढे तु / गंधं रसं च फासं च बद्ध-पुद वियागरे॥ --अावश्यकनियुक्ति 3. 'बद्धमप्पीकयं पएसेहि'-प्रज्ञापना. म. व. पत्रांक 298 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org