________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रयम उद्देशक] [161 शब्दार्थ भिन्न होने से दोनों को पृथक्-पृथक प्रस्तुत किया है / इन्द्रियों द्वारा अपने अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात कूहर में प्राप्त शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं / चक्षरिन्द्रिय चक्ष में अप्रविष्ट रूप को ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने उपकरण में बद्ध-प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं।' नौवाँ विषय(-परिमाण)द्वार 62. [1] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते ? गोयमा! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिमागानो, उक्कोसेणं बारसहिं जोयणेहितो अच्छिण्ण पोग्गले पुछे पविट्ठाई सद्दाइं सुणेति / [992-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [692-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग (दूर शब्दों को) एवं उत्कृष्ट बारह योजनों से (12 योजन दूर से) प्राए अविच्छिन्न (विच्छिन्न, विनष्ट या बिखरे न हुए) शब्दवर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है / [2] चक्खिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभागानो, उक्कोसेणं सातिरेगानो जोयणसयसहस्सायो प्रच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठाई रूबाई पासति / [992-2 प्र.] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [192-2 उ.] गौतम ! (चक्षुरिन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (दूर स्थित रूपों को) एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक (दूर) के अविच्छिन्न (रूपवान्) पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है। [3] घाणिदियस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागातो, उक्कोसेणं णवहिं जोयणेहितो प्रच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाई गंधाई अग्धाति / [962-3 प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [992-3 उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (दूर से आए गन्धों को) और उत्कृष्ट नौ योजनों से पाए अविच्छिन्न (गन्ध-) पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट गन्धों को सूघ लेती है / [4] एवं जिरिंभदियस्स वि फासिदियस्स वि / [992-4] जैसे घ्राणेन्द्रिय के विषय (-परिमाण) का निरूपण किया है, वैसे ही जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-परिमाण के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 298-299 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org