Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [159 सप्तम-अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार___६६०. [1] पुट्ठाई भंते ! सदाइं सुणेइ ? अपुट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, नो अपुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ / [960-1 प्र.] भगवन् (श्रोत्रेन्द्रिय) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है या अस्पृष्ट शब्दों को (सुनती है)? [660-1 उ.) गौतम ! (वह) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुनती / [2] पुट्ठाई भंते ! रुवाइं पासति ? अयुट्टाई रूवाई पासइ ? गोयमा ! णो पुट्ठाई रूवाई पासइ, अट्ठाई रूवाई पासति / __[960-2 प्र.] भगवन् ! (चक्षुरिन्द्रिय) स्पृष्ट रूपों को देखती है, अथवा अस्पृष्ट रूपों को (देखती है ? [660-2 उ.] गौतम ! (वह) अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती। [3] पृढाई भंते ! गंधाइं अग्घाति ? अपुट्ठाई गंधाई अग्घाति ? गोयमा ! पुट्ठाई गंधाई अग्धाइ, जो अपुट्ठाई गंधाइं अग्धाति / [990-3 प्र.] भगवन् ! (घ्राणेन्द्रिय) स्पृष्ट गन्धों को सूघती है, अथवा अस्पृष्ट गन्धों को (सूघती है) ? [960.3 उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट गन्धों को सूचती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं सूघती। [4] एवं रसाणवि फासाणवि / णवरं रसाई प्रस्साएइ फासाई पडिसंवेदेति ति अभिलावो कायव्वो। [990-4 प्र. इस प्रकार (घ्राणेन्द्रिय की तरह जिह्वन्द्रिय द्वारा) रसों के और (स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा) स्पर्शों के ग्रहण करने के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि (जिह्वेन्द्रिय) रसों का आस्वादन करती (चखती) है और (स्पर्शनेन्द्रिय) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करती है, ऐसा अभिलाप (शब्दप्रयोग) करना चाहिए / 661. [1] पविट्ठाई भंते ! सद्दाइं सुणेइ ? अपविट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पविट्ठाई सद्दाई सुणेति, णो अपविट्ठाई सद्दाई सुणेति / [961-1 प्र.] भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ट शब्दों को (सुनती है)? [991-1 उ.] गौतम ! (वह) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं सुनती। [2] एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविट्ठाणि वि / [991.2] इसी प्रकार जैसे स्पृष्ट के विषय में कहा, उसी प्रकार प्रविष्ट के विषय में भी कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org