________________ 74 ] [प्रज्ञापनासूत्र 875. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि सच्चं भासं भासंति ? जाव (सु. 871) कि असच्चामोसं भासं भासंति ? गोयमा! पंचेवियतिरिक्खजोणिया णो सच्चं मासं भासंति, णो मोसं भासं भासंति, णो सच्चामोसं भासं भासंति, एग प्रसच्चामोसं भासं भासंति, णऽण्णत्य सिक्खापुव्वगं उत्तरगुणद्धि मा पडुच्च सच्चं पि भासं भासंति, मोसं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भासंति, असच्चामोसं पि भासं भासंति। [875 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं ? यावत् क्या (वे) असत्यामृषा भाषा बोलते हैं ? [875 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, न तो सत्यभाषा बोलते हैं, न मृषा भाषा बोलते हैं और न ही सत्यामषा भाषा बोलते हैं, वे सिर्फ एक असत्यामषा भाषा बोलते हैं: सिवाय शिक्षापूर्वक अथवा उत्तरगुणलब्धि की अपेक्षा से (तैयार हुए पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के, जो कि) सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं तथा असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। 876. मणुस्सा जाव वेमाणिया एए जहा जीवा (871) तहा माणियव्वा / [876] मनुष्यों से लेकर (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क) यावत् वैमानिकों तक की भाषा के विषय में प्रोधिक जीवों की भाषाविषयकप्ररूपणा के समान (सूत्र 871 के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन–चतुर्विध भाषाजात एवं समस्त जीवों में उसकी प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 870 से 876 तक) में चार प्रकार की भाषाओं का निरूपण करके समुच्चय जीव एवं चौवीस दण्डकों के अनुसार नै रयिकों से वैमानिकों तक के जीवों में से कौन, कौन-कौनसी भाषा बोलते हैं ?, इसकी संक्षिप्त प्ररूपणा की गई है। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की भाषाविषयक प्ररूपणा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में केवल असत्यामृषा के सिवाय शेष तीनों भाषाओं का जो निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि उनमें न तो सम्यग्ज्ञान होता है और न ही परवंचना आदि का अभिप्राय हो सकता है / इसी प्रकार तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में सिवाय कुछ अपवादों के केवल असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के अतिरिक्त शेष तीनों भाषाओं का निषेध किया गया है, इसका कारण यह है कि वे न तो सम्यक रूप से, यथावस्थित वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के अभिप्राय से बोलते हैं और न ही दूसरों को धोखा देने या ठगने के प्राशय से बोलते हैं; किन्तु कुपित-अवस्था में या दूसरों को मारने को कामना से जब भी वे बोलते हैं, तब इसी एक ही रूप से बोलते हैं / अतएव उनकी भाषा असत्यामृषा होती है। शास्त्रकार इनके विषय में कुछ अपवाद भी बताते हैं, वह यह है कि शुक (तोता), सारिका (मैना) आदि किन्हीं विशिष्ट तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को यदि प्रशिक्षित (Trained) किया जाय, अथवा संस्कारित किया जाय तथा विशिष्ट प्रकार का क्षयोपशम होने से किन्हीं को जातिस्मरणज्ञानादि रूप किसी उत्तरगुण को लब्धि हो जाए, अथवा विशिष्ट व्यवहारकौशलरूप लब्धि प्राप्त हो जाए तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org