________________ 102] | प्रज्ञापनासून की लम्बाई में सात रज्जु एवं मुक्तावली के समान एक आकाशप्रदेश की पंक्ति श्रेणी कहलाती है। घनीकृत लोक का सप्त रज्जुप्रमाण इस प्रकार होता है-समग्र लोक ऊपर से नीचे तक चौदह रज्जुप्रमाण है। उसका विस्तार नीचे कुछ कम सात रज्जु का है / मध्य में एक रज्जु है। ब्रह्मलोक नामक पंचम देवलोक के बिलकुल मध्य में पांच रज्जु है और ऊपर एक रज्जु विस्तार पर लोक का अन्त होता है / रज्जु का परिमाण स्वयम्भूरमणसमुद्र की पूर्वतटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी परवेदिका के अंत तक समझना चाहिए। इतनी लम्बाई-चौड़ाई वाले लोक की आकृति दोनों हाथ कमर पर रख कर नाचते हुए पुरुष के समान है। इस कल्पना से त्रसनाडी के दक्षिणभागवर्ती अधोलोकखण्ड को (जो कि कुछ कम तीन रज्ज विस्तत है, और सात रज्ज से कुछ अधिक ऊँचा है। लेकर सनाडी के उत्तर पार्श्व से, ऊपर का भाग नीचे और नीचे का भाग ऊपर करके इकट्ठा रख दिया जाय, फिर ऊर्ध्वलोक में त्रसनाडी के दक्षिण भागवर्ती कूर्पर (कोहनी) के आकार के जो दो खण्ड हैं, जो कि प्रत्येक कुछ कम साढ़े तीन रज्जु ऊँचे होते हैं, उन्हें कल्पना में लेकर विपरीत रूप में उत्तर पार्श्व में इकट्ठा रख दिया जाए। ऐसा करने से नीचे का लोकार्ध कुछ कम चार रज्जु विस्तृत और ऊपर का अर्ध भाग तीन रज्जु विस्तृत एवं कुछ कम सात रज्जु ऊँचा हो जाता है। तत्पश्चात् ऊपर के अर्ध भाग को कल्पना में लेकर नीचे के अर्धभाग के उत्तरपार्श्व में रख दिया जाए। ऐसा करने से कुछ अधिक सात रज्जु ऊँचा और कुछ कम सात रज्जु विस्तार वाला घन बन जाता है / सात रज्जु से ऊपर जो अधिक है, उसे ऊपर-नीचे के आयत (लम्बे) भाग को उत्तरपार्श्व में मिला दिया जाता है / इससे विस्तार में भी पूरे सात रज्जु हो जाते हैं। इस प्रकार लोक को घनीकृत किया जाता है। जहाँ कहीं घनत्व से सात रज्जुप्रमाण की पूर्ति न हो सके, वहाँ कल्पना से पूर्ति कर लेनी च चाहिए। सिद्धान्त (शास्त्र) में जहाँ कहीं भी श्रेणी अथवा प्रतर का ग्रहण हो, वहाँ सर्वत्र इसी प्रकार धनीकृत सात रज्जुप्रमाण लोक की श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिए। मुक्त वैक्रिय शरीर भी मुक्त प्रौदारिक शरीरों के समान अनन्त हैं। अत: उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकों के समान समझ लेनी चाहिए / बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण-बद्ध आहारक शरीर कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते, क्योंकि आहारक शरीर का अन्तर (विरहकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक का है।' यदि पाहारक शरीर होते हैं तो उनकी संख्या जघन्य एक, दो या तीन होती है, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व अर्थात् दो हजार से लेकर नौ हजार तक होती है। मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण मुक्त औदारिक शरीरों की तरह समझना चाहिए। बद्ध-मुक्त तेजसशरीरों का परिमाण.-बद्ध तेजस शरीर अनन्त हैं। क्योंकि साधारणशरीरी निगोदिया जीवों के तैजस शरीर अलग-अलग होते हैं, औदारिक की तरह एक नहीं / उसकी अनन्तता का कालतः परिमाण (पूर्ववत्) अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों के समयों के बराबर है। क्षेत्रत:-अनन्त लोकप्रमाण है। अर्थात् अनन्त लोकाकाशों में जितने प्रदेश हों, उतने ही बद्ध तेजसशरीर हैं। द्रव्य की अपेक्षा से बद्ध तेजस शरीर सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि तैजसशरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और संसारोजीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं / इसलिए तेजसशरीर भी 1. पाहारगाई लोए छम्मासे जा न होति वि कयाई / उककोसेणं नियमा, एक समयं जहन्नण // -प्रज्ञापना. म. बु., प. 273 में उद्ध त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org