Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बारहवाँ शरीरपद] 113 उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-कालों में सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं / क्षेत्र और काल की अपेक्षा से परिमाण कश्रेणीरूप अंगुलमात्र प्रतर के असंख्यातभाग-प्रतिभागप्रमाण खण्ड से, यह क्षेत्रदष्टि से परिमाण है तथा काल की दृष्टि से परिमाण-आवलिका के असंख्येयभाग प्रतिभाग से अर्थात् असंख्यातवें प्रतिभाग से अपहृत होता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक द्वीन्द्रिय के द्वारा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड आवलिका के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है। द्वितीय द्वीन्द्रिय के द्वारा भी उतने ही प्रमाण वाला खण्ड उतने ही काल में अपहृत होता है। इस प्रकार से अपहृत किया जाने वाला प्रतर समस्त द्वीन्द्रियों द्वारा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में सम्पूर्ण अपहृत होता है। द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरों के समान समझनी चाहिए। द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त क्रिय, प्राहारक, तंजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा-द्वीन्द्रियों के बद्ध वैक्रिय और आहारक शरीर नहीं होते। मुक्त वैक्रिय और आहारक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरवत् समझनी चाहिए / इनके बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्धमुक्त औदारिकशरीरों की तरह जाननी चाहिए। त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियों के बद्ध-मुक्त प्रोवारिकादिशरीर-द्वीन्द्रियों के बद्धमुक्त शरीरों के समान ही इनके बद्धमुक्त सब शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीरों का कथन द्वीन्द्रियों के समान ही समझना चाहिए ! बद्ध-वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं / काल और क्षेत्र की अपेक्षा से परिमाण की सब प्ररूपणा असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि असुरकुमारों की वक्तव्यता में श्रेणियों की विष्कम्भसूची का प्रमाण अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग बतलाया था, जबकि यहाँ असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशरूप सूची की जो श्रेणियाँ स्पृष्ट है, उन श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्धवैक्रियशरीर होते हैं। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा प्रौधिक (समुच्चय) वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए / बद्ध आहारक शरीर इनके नहीं होते / मुक्त आहारकशरीर की प्ररूपणा पूर्ववत् समझनी चाहिए। इनके बद्ध तैजसकार्मणशरीर इन्हीं के बद्ध प्रौदारिक शरीरवत् हैं / मुक्त तैजसकार्मणशरीर समुच्चय मुक्त तैजसकार्मणशरीरवत् समझना चाहिए।' मनुष्यों के बद्धमुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण 621. [1] मणुस्साणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरा पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धलगा य मक्केल्लगा य / तत्य णं जे ते बद्धलगा ते णं सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, जहण्णपए संखेज्जा संखेज्जाम्रो कोडाकोडोप्रो तिजमलपयस्स 1. (क) प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक 277 से 279 तक (ख) अंगुलमूलासंखेयभागप्पमियाउ होंति सेढीओ। उत्तरविउग्वियाणं तिरियाणं सम्मिपज्जाणं // -प्रज्ञापना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org