________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक [147 प्ररूपणा है, (18) वसाद्वार-इसमें वसा (चर्बी) के विषय में वर्णन है, (16) कम्बलद्वार-इसमें कम्बलविषयक निरूपण है, (20) स्थूणाद्वार-~-इसमें स्थूणा (स्तुप या ठूठ) से सम्बन्धित निरूपण है, (२१)-थिग्गलद्वार-इसमें आकाशथिग्गल विषयक वर्णन है, (22) द्वीपोदधिद्वार---इसमें द्वीप और समुद्र विषयक प्ररूपणा है, (23) लोकद्वार-लोकविषयक वक्तव्य, और (24) अलोकद्वार-- अलोक सम्बन्धी प्ररूपणा है।' इन्द्रियों की संख्या 973. कति णं भंते ! इंदिया पण्णता? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता। तं जहा-सोइंदिए 1 क्खिदिए 2 घाणिदिए 3 जिभिदिए 4 फासिदिए / [973 प्र. भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [973 उ.] गौतम ! पांच इन्द्रियाँ कही हैं / वे इस प्रकार--(१) श्रोत्रेन्द्रिय, (2) चक्षुरिन्द्रिय, (3) घ्राणेन्द्रिय, (4) जिह्वन्द्रिय और (5) स्पर्शेन्द्रिय / विवेचन-इन्द्रियों की संख्या-प्रस्तुत सूत्र में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों की प्ररूपणा की अन्य दार्शनिक मन्तव्य-सांख्यादि दर्शनों में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय कहा गया है तथा वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (मूत्रद्वार) और उपस्थ (मलद्वार), इन पांच इन्द्रियों को कर्मेन्द्रिय कहा गया है। किन्तु पांच कर्मेन्द्रियों की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। जैनदर्शन में द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के रूप से प्रत्येक के दो-दो भेद तथा द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण एवं भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग रूप दो-दो प्रकार बताये गये हैं। इनका निरूपण इसी पद के द्वितीय उद्देशक में किया जायेगा / प्रथम संस्थानद्वार-- 674. [1] सोइंदिए णं भंते ! किसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! कलबुयापुप्फसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [974-1 प्र.) भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय किस प्रकार की कही गई है ? [974-1 उ.] गौतम ! (वह) कदम्बपुष्प के आकार की कही गई है। [2] चक्खिदिए णं भंते ! किसंठिए पण्णते ? गोयमा! मसूरचंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते / [974-2 प्र.] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय किस आकार की कही गई है ? {974-2 उ.] गौतम (चक्षुरिन्द्रिय) मसूर-चन्द्र के आकार की कही है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 293 2. (क) सांख्यकारिका, योगदर्शन (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 293 (ग) 'निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्', 'लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम्'-तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 17, 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org