________________ पनरसमं इंदियपयं : पढमो उद्देसओ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद है। * इन्द्रियां आत्मा को पहचानने के लिए लिंग हैं, इन्हीं से आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति होती है। * इस पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में सभी पहलुओं से विश्लेषण किया गया है। इसके दो उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में प्रारम्भ में निरूपणोय 24 द्वारों का कथन किया गया है / द्वितीय उद्देशक में 12 द्वारों के माध्यम से इन्द्रियों की प्ररूपणा की गई है। प्रथम उद्देशक में संस्थान से लेकर अल्पबहत्व तक 6 द्वारों की चर्चा करके उनका 24 दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया गया है / तत्पश्चात् सातवें स्पृष्टद्वार से विषय नामक नौवें द्वार तक का विवरण प्रस्तुत किया गया है / इन द्वारों में चौवीस दण्डकों की अपेक्षा से विचार नहीं किया गया है, अपितु इन्द्रियों से सम्बन्धित विचार है। इसके अनन्तर अनगार और आहार को लेकर इन्द्रियों का-विशेषत: चक्षुरिन्द्रिय की चर्चा है। तत्पश्चात् बारहवें से अठारहवें द्वार तक अादर्श से लेकर वसा तकद्वारों के माध्यम से विशेषतः चक्षरिन्द्रिय सम्बन्धी प्ररूपणा है। फिर कम्बल, स्थूणा (स्तम्भ), थिग्गल, द्वीपोदधि, लोक और अलोक तक के 6 द्वारों के माध्यम से विशेषतः स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। द्वितीय उद्देशक में इन्द्रियों का उपचय, निर्वर्तना, समय, लब्धि, उपयोगकाल, अल्पबहुत्व, अवग्रहण, ईहा, अवाय, व्यंजनावग्रह, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन 12 द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय सम्बन्धी स्वरूप एवं प्रकारों की प्ररूपणा करके साथ ही साथ उनका 24 दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया गया है।' उपचय, निर्वर्तना, लब्धि और उपयोग इन चारों का क्रमश: प्रारम्भ की दो का द्रव्येन्दिय में तथा अन्तिम दो का भावेन्द्रिय में समावेश किया गया है। * प्रादर्शद्वार आदि का आशय प्राचार्य मलयगिरि ने दृश्यविषयक माना है / दृश्य चाहे जो हो, जिस विषय का उपयोग या विकल्प आत्मा को होता है, उसे ही दृश्य माना जाए तो प्रतिबिम्ब देखते समय भान, उपयोग या विकल्प तो आदर्श प्रादि-गत प्रतिविम्ब विषयक ही है। निशोथभाष्य आदि में इसको रोचक चर्चा है / * द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय द्वार में 24 दण्डकवर्ती जोवों को प्रतोत, बद्ध (वर्तमान) और अनागत (पुरस्कृत) उभय इन्द्रियों को विस्तृत चर्चा की गई है / 00 1. 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम्' --तत्त्वार्थ. अ. 2, सू. 17-18 2. (क) पण्णवणासुत्तं प्रथम भाग, पृ. 237 से 260 तक . (ख) पण्णवणासुत्तं द्वितीय भाग प्रस्तावना, पृ. 97 से 100 तक (ग) निशीथभाष्य, गा. 4318 प्रादि (घ) तत्वार्थ. सिद्धसेनीया टीका, पृ. 364 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org