Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चौदहवां कषायपद ] [ 143 668, [1] जोवा णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! चहि ठाणेहि उचिणंति-कोहेणं 1 जाव लोमेणं 4 / [968-1 प्र. भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय करते हैं ? [968-1 उ.] गौतम ! चार कारणों से जीव पाठ कर्मप्रकृतियों का उपचय करते हैं। वे इस प्रकार हैं (1) क्रोध से, (2) मान से, (3) माया से और (4) लोभ से / [2] एवं रतिया जाव वेमाणिया। [968-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (के विषय में कहना चाहिए।) ___666. एवं उवचिणिस्संति / [969] इसी प्रकार (पूर्वोक्त चार कारणों से जीव पाठ कर्मप्रकृतियों का) उपचय करेंगे, (यह कहना चाहिये। 670. जोवा णं भंते ! कहि ठाणेहि अट्ट कम्मपगडीओ बंधिस्तु 3 ? गोयमा ! चहि ठाणेहिं / तं जहा-कोहेणं 1 जाव लोभेणं 4 / [970 प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों को बांधा है ?, बांधते हैं, बांधेगे ? [970 उ.] गौतम ! चार कारणों से जोवों ने आठ कर्मप्रकृतियों को बांधा है, बांधते हैं और बांधेगे / वे इस प्रकार हैं--क्रोध से यावत् लोभ से / 971. एवं रइया जाव वेमाणिया बंधेसु बंधति बंधिस्संति, उदोरेंसु उदीरंति उदोरिस्संति, वेइंसु वेएंति वेइस्संति, निज्जरेंसु निजरिति णिज्जरिस्संति / एवं एते जोवाईया वेमाणियपज्जवसाणा प्रहारस दंडगा जाव वेमाणिया णिरिसु णिज्जरंति णिज्जरिस्संति / प्रायपइट्टिय खेत्तं पडुच्चऽणंताणबंधि प्राभोगे। चिण उचिण बंध उईर वेय तह निज्जरा चेव // 201 / / ॥पण्णवणाए भगवतीए चोद्दसमं कसायपयं समत्तं // [971] इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक के (जीवों ने) (पूर्वोक्त चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों को) बांधा, बांधते हैं और बांधेगे; उदीरणा को, उदीरणा करते हैं और उदीरणा करेंगे तथा वेदन किया (भोगा), वेदन करते (भोगते) हैं और वेदन करेंगे (भोगेंगे), (इसी प्रकार) निर्जरा की, निर्जरा करते हैं और निर्जरा करेंगे। ___ इस प्रकार समुच्चय जीवों तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त आठ कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन एवं निर्जरा की अपेक्षा से छह तीनों (भूत, वर्तमान एवं भविष्य) काल के तीन-तीन भेद के कुल अठारह दण्डक (पालापक) यावत् वैमानिकों ने निर्जरा की, निर्जरा करते हैं तथा निर्जरा करेंगे, (यहाँ तक कहने चाहिए / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org